Friday 23 December 2011

स्वर-सम्राट उस्ताद अब्दुल करीम खाँ : जिनका कुत्ता भी सुरीला था



दिसम्बर 18, 2011
सुर संगम में आज - स्वर-सम्राट उस्ताद अब्दुल करीम खाँ : जिनका कुत्ता भी सुरीला था

 
उस्ताद अब्दुल करीम खाँ सम्पूर्ण भारतीय संगीत का प्रतिनिधित्व करते थे। वे उत्तर और दक्षिण भारतीय संगीत के बीच एक सेतु थे। दक्षिण के कर्नाटक संगीत के कई रागों को उत्तर भारतीय संगीत में शामिल किया और सरगम के विशिष्ट अन्दाज को उत्तर भारत में प्रचलित किया। उनकी कल्पना विस्तृत और अनूठी थी, जिसके बल पर उन्होने भारतीय संगीत को एक नया आयाम और क्षितिज प्रदान किया।


 सुर संगम- 48 : उस्ताद अब्दुल करीम खाँ की संगीत-साधना
‘सुर संगम’ के एक नए अंक में, मैं कृष्णमोहन मिश्र, समस्त संगीत-प्रेमियों का ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के मंच पर हार्दिक स्वागत करता हूँ। आज के अंक में हम एक ऐसे संगीत-साधक के कृतित्व पर चर्चा करेंगे जो उत्तर और दक्षिण भारतीय संगीत के बीच एक सेतु थे। किराना घराने के इस महान कलासाधक का नाम है- उस्ताद अब्दुल करीम खाँ। इस महान संगीतज्ञ का जन्म उत्तर प्रदेश के वर्तमान मुजफ्फरनगर जिले में स्थित कैराना नामक कस्बे में वर्ष १८८४ में हुआ था। आज जिसे हम संगीत के किराना घराने के नाम से जानते हैं वह इसी कस्बे के नाम पर पड़ा था। एक संगीतकार परिवार में जन्में अब्दुल करीम खाँ के पिता का नाम काले खाँ था। खाँ साहब के तीन भाई क्रमशः अब्दुल लतीफ़ खाँ, अब्दुल मजीद खाँ और अब्दुल हक़ खाँ थे। सुप्रसिद्ध गायिका रोशन आरा बेग़म सबसे छोटे भाई अब्दुल हक़ की सुपुत्री थीं। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद रोशन आरा बेग़म का गायन लखनऊ रेडियो के माध्यम से अत्यन्त लोकप्रिय था।
जन्म से ही सुरीले कण्ठ के धनी अब्दुल करीम खाँ की सीखने की रफ्तार इतनी तेज थी कि मात्र छः वर्ष की आयु में ही संगीत-सभाओं में गाने लगे थे। उनकी प्रतिभा इतनी विलक्षण थी कि पन्द्रह वर्ष की आयु में बड़ौदा दरबार में गायक के रूप में नियुक्त हो गए थे। वहाँ वे १८९९ से १९०२ तक रहे और उसके बाद मिरज चले गए। आइए, यहाँ थोड़ा रुक कर उस्ताद अब्दुल करीम खाँ के स्वरों में राग बसन्त में निबद्ध दो खयाल सुनते हैं। विलम्बित एकताल के खयाल के बोल हैं- ‘अब मैंने देखे...’ तथा द्रुत तीनताल की बन्दिश के बोल हैं- ‘फगुआ ब्रज देखन को चलो री...’

उस्ताद अब्दुल करीम खाँ : राग – बसन्त : खयाल – विलम्बित एकताल और द्रुत तीनताल
http://www.youtube.com/watch?v=M2o4LwjW_Pg

खाँ साहब के स्वरों में जैसी मधुरता, जैसा विस्तार और जैसी शुद्धता थी वैसी अन्य किसी गायक को नसीब नहीं हुई। वे विलम्बित खयाल में लयकारी और बोल तान की अपेक्षा आलाप पर अधिक ध्यान रखते थे। उनके गायन में वीणा की मींड़, सारंगी के कण और गमक का मधुर स्पर्श होता था। रचना के स्थायी और एक अन्तरे में ही खयाल गायन के सभी गुणो का प्रदर्शन कर देते थे। अपने गायन की प्रस्तुति के समय वे अपने तानपूरे में पंचम के स्थान पर निषाद स्वर में मिला कर गायन करते थे। वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। उत्कृष्ट खयाल गायकी के साथ ठुमरी, दादरा, भजन और मराठी नाट्य संगीत-गायन में भी दक्ष थे। वर्ष १९२५-२६ में उनकी गायी राग झिंझोटी की ठुमरी- ‘पिया बिन नाहीं आवत चैन....’ अत्यन्त लोकप्रिय हुई थी। लगभग दस वर्षों के बाद १९३६ में प्रथमेश चन्द्र बरुआ के निर्देशन में शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय के उपन्यास- "देवदास" पर इसी नाम से फिल्म का निर्माण हुआ था। फिल्म के संगीत निर्देशक तिमिर वरन ने उस्ताद अब्दुल करीम खाँ की गायी इसी ठुमरी को फिल्म में शामिल किया था, जिसे कुन्दनलाल सहगल ने स्वर दिया था। सहगल के स्वरों में इस ठुमरी को सुन कर खाँ साहब बड़े प्रसन्न हुए थे और उन्हें बधाई भी दी थी। आइए, आज हम आपको खाँ साहब के स्वरों में वही लोकप्रिय ठुमरी सुनवाते हैं-

उस्ताद अब्दुल करीम खाँ : ठुमरी – राग झिंझोटी : ‘पिया बिन नाहीं आवत चैन...’

उस्ताद अब्दुल करीम खाँ जैसे संगीतज्ञ सदियों में जन्म लेते हैं। अनेक प्राचीन संगीतज्ञों के बारे कहा जाता है कि उनके संगीत से पशु-पक्षी खिंचे चले आते थे। खाँ साहब के साथ भी ऐसी ही एक सत्य घटना जुड़ी हुई है। उनका एक कुत्ता था, जो अपने स्वामी, खाँ साहब के स्वरों से इतना सुपरिचित हो गया था कि उनकी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष आवाज़ सुन कर खिंचा चला आता था। इस तथ्य से प्रभावित होकर लन्दन की ग्रामोफोन कम्पनी ने अपना नामकरण और प्रतीक चिह्न, अपने स्वामी के स्वरों के प्रेमी उस कुत्ते को ही बनाया। हिज मास्टर्स वायस (HMV) के ग्रामोफोन रिकार्ड पर चित्रित कुत्ता उस्ताद अब्दुल करीम खाँ का ही है। आइए, अब चलते-चलते उस्ताद अब्दुल करीम खाँ के स्वरों में, अत्यन्त लोकप्रिय, भैरवी की ठुमरी सुनते हैं-

उस्ताद अब्दुल करीम खाँ : ठुमरी – राग भैरवी : ‘जमुना के तीर...’

कृष्णमोहन मिश्र

अब समय आ चला है आज के 'सुर-संगम' के अंक को यहीं पर विराम देने का। आशा है आपको यह प्रस्तुति पसन्द आई होगी। हमें बताइये कि किस प्रकार हम इस स्तम्भ को और रोचक बना सकते हैं! आप अपने विचार व सुझाव हमें लिख भेजिए admin@radioplaybackindia.com के ई-मेल पते पर।

झरोखा अगले अंक का
भारतीय संगीत वाद्यो में एक सर्वाधिक प्राचीन वाद्य है, सारंगी। यह अति प्राचीन वाद्य मानव कण्ठ-स्वर के सर्वाधिक निकट है। इस विशेषता के बावजूद एक लम्बे समय तक यह एक संगति वाद्य के रूप में ही प्रचलित रहा। पिछली शताब्दी में सारंगी के कुछ ऐसे कलासाधक भी हुए जिन्होंने स्वतंत्र वाद्य के रूप में न केवल बजाया, बल्कि ऐसा बजाया कि संगीत जगत देखता ही रह गया। अगले अंक में हम एक ऐसे ही वरिष्ठ सारंगी वादक पण्डित रामनारायण के सारंगी वादन से आपका परिचय कराएँगे। अगले रविवार को प्रातः ९-१५ बजे हम आपसे http://radioplaybackindia.com/ पर फिर मिलेंगे।


क्या आपको शास्त्रीय, उपशास्त्रीय, लोक और फिल्म संगीत से अनुराग है? यदि हाँ, तो प्रतिदिन अपडेट होने वाले पृष्ठों के साथ हमसे यहाँ http://radioplaybackindia.com/  मिलें। 

No comments:

Post a Comment