स्वरगोष्ठी – 182 में आज
फिल्मों के आँगन में ठुमकती पारम्परिक ठुमरी - 1 : ठुमरी झिंझोटी
जब सहगल ने उस्ताद अब्दुल करीम खाँ की गायी ठुमरी को अपना स्वर दिया
‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर आज से आरम्भ हो रही श्रृंखला का शीर्षक है- ‘फिल्मों के आँगन में ठुमकती पारम्परिक ठुमरी’। दरअसल यह श्रृंखला लगभग दो वर्ष पूर्व ‘स्वरगोष्ठी’ में प्रकाशित / प्रसारित की गई थी। हमारे पाठकों / श्रोताओं को यह श्रृंखला सम्भवतः कुछ अधिक रुचिकर प्रतीत हुई थी। अनेक संगीत-प्रेमियों ने इसके पुनर्प्रसारण का आग्रह किया है। सभी सम्मानित पाठकों / श्रोताओं के अनुरोध का सम्मान करते हुए और पूर्वप्रकाशित श्रृंखला में थोड़ा परिमार्जन करते हुए पुनः प्रस्तुत कर रहे हैं। ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के कुछ स्तम्भ केवल श्रव्य माध्यम से प्रस्तुत किये जाते हैं तो कुछ स्तम्भ आलेख, चित्र और गीत-संगीत श्रव्य माध्यम के मिले-जुले रूप में प्रस्तुत होते हैं। आपका प्रिय स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ इस दूसरे माध्यम से प्रस्तुत होता आया है। इस अंक से हम एक नया प्रयोग कर रहे हैं। ‘स्वरगोष्ठी’ के परम्परागत रूप के साथ-साथ पूरे आलेख और गीत-संगीत को हम ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ की प्रमुख सहयोगी संज्ञा टण्डन की आवाज़ में भी प्रस्तुत कर रहे हैं। हमारे इस प्रयोग पर आप अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दीजिएगा।
सभी संगीत-प्रेमी श्रोताओं का आज से शुरू हो रही हमारी नई लघु श्रृंखला 'फिल्मों के आँगन में ठुमकती पारम्परिक ठुमरी’ में कृष्णमोहन मिश्र और संज्ञा टण्डन की ओर से हार्दिक स्वागत है। आपको शीर्षक से ही यह अनुमान हो गया होगा कि इस श्रृंखला का विषय फिल्मों में शामिल की गई उपशास्त्रीय गायन शैली ठुमरी है। सवाक फिल्मों के प्रारम्भिक दौर से फ़िल्मी गीतों के रूप में तत्कालीन प्रचलित पारसी रंगमंच के संगीत और पारम्परिक ठुमरियों के सरलीकृत रूप का प्रयोग आरम्भ हो गया था। विशेष रूप से फिल्मों के गायक-सितारे कुन्दनलाल सहगल ने अपने कई गीतों को ठुमरी अंग में गाकर फिल्मों में ठुमरी शैली की आवश्यकता की पूर्ति की थी। चौथे दशक के मध्य से लेकर आठवें दशक के अन्त तक की फिल्मों में सैकड़ों ठुमरियों का प्रयोग हुआ है। इनमे से अधिकतर ठुमरियाँ ऐसी हैं जो फ़िल्मी गीत के रूप में लिखी गईं और संगीतकार ने गीत को ठुमरी अंग में संगीतबद्ध किया। कुछ फिल्मों में संगीतकारों ने परम्परागत ठुमरियों का भी प्रयोग किया है। इस श्रृंखला में हम आपसे ऐसी ही कुछ चर्चित-अचर्चित फ़िल्मी ठुमरियों पर बात करेंगे।
आज के ठुमरी गीत पर चर्चा से पहले भारतीय संगीत की रस, रंग और भाव से परिपूर्ण ठुमरी शैली पर चर्चा आवश्यक है। ठुमरी उपशास्त्रीय संगीत की एक लोकप्रिय गायन शैली है। यद्यपि इस शैली के गीत रागबद्ध होते हैं, किन्तु ध्रुवपद और खयाल की तरह राग के कड़े प्रतिबन्ध नहीं रहते। रचना के शब्दों के अनुकूल रस और भाव की अभिव्यक्ति के लिए कभी-कभी गायक राग के निर्धारित स्वरों के साथ अन्य स्वरों का प्रयोग करने के लिए स्वतंत्र होते हैं। ऐसी ठुमरियों में जिस राग की प्रमुखता होती है, उसमें ‘मिश्र’ शब्द जोड़ दिया जाता है; जैसे 'मिश्र खमाज', 'मिश्र पहाडी', 'मिश्र काफी’ आदि। ठुमरियों में श्रृंगार और भक्ति रसों की प्रधानता होती है। कुछ ठुमरियों में इन दोनों रसों का अनूठा मेल भी मिलता है। ठीक उसी प्रकार जैसे सूफी गीतों और कबीर के निर्गुण पदों में उपरी आवरण तो श्रृंगार रस से प्रभावित रहता है, किन्तु आन्तरिक भाव आध्यात्म और भक्तिभाव की अनुभूति कराता है।
आइए, अब आज के ठुमरी गीत पर थोड़ी चर्चा कर ली जाए। इस श्रृंखला की पहली फ़िल्मी ठुमरी के रूप में हमने 1936 की फिल्म ‘देवदास’ का चयन किया है। यह फिल्म सुप्रसिद्ध उपन्यासकार शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय के इसी शीर्षक के उपन्यास पर बनाई गई थी। शरत बावू का यह उपन्यास 1901 में लिखा गया और 1917 में पुस्तक रूप में प्रकाशित हुआ था। देवदास पर सबसे पहले 1928 में 'इस्टर्न फिल्म सिंडिकेट' ने मूक फिल्म बनाई थी, जिसमे देवदास की भूमिका नरेश चन्द्रा ने निभाई थी। सवाक फिल्मों के युग में देवदास उपन्यास पर अब तक सात फ़िल्में बन चुकी हैं। अकेले 'न्यू थिएटर्स' ने ही चार विभिन्न भाषाओं में इस फिल्म का निर्माण किया था। 1935 में पी.सी. बरुआ (प्रथमेश चन्द्र बरुआ) के निर्देशन में देवदास का निर्माण बांग्ला भाषा में हुआ था। 1936 में श्री बरुआ के निर्देशन में ही हिन्दी में और 1937 में असमी भाषा में यह फिल्म बनी थी। 1936 में ही 'न्यू थिएटर्स' के बैनर से पी.वी. राव के निर्देशन में इस फिल्म के तमिल संस्करण का निर्माण भी किया गया था, किन्तु दक्षिण भारत में यह फिल्म बुरी तरह असफल रही। 1953 में तमिल और तेलुगु में ‘देवदास’ के निर्माण का पुनः प्रयास हुआ और इस बार दक्षिण भारत में यह द्विभाषी प्रयोग सफल रहा। 1955 में एक बार फिर विमल राय के निर्देशन में देवदास का निर्माण हुआ, जिसमें दिलीप कुमार देवदास की भूमिका में थे। इसके बाद 2002 में शाहरुख़ खाँ अभिनीत फिल्म देवदास का निर्माण हुआ था।
आज हम आपके लिए फिल्म देवदास के जिस गीत को लेकर उपस्थित हुए हैं वह 1936 में हिन्दी भाषा में निर्मित फिल्म देवदास का है। फिल्म के निर्देशक पी.सी. बरुआ थे और देवदास की भूमिका में कुन्दनलाल सहगल, पारो की भूमिका में जमुना बरुआ और चन्द्रमुखी की भूमिका में राजकुमारी ने अभिनय किया था। फिल्म के संगीतकार तिमिर वरन (भट्टाचार्य) थे। तिमिर वरन उस्ताद अलाउद्दीन खाँ के शिष्य और संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वानों के कुल से थे। साहित्य और संगीत में कुशल तिमिर वरन को 'न्यू थियेटर्स' में प्रवेश करने पर पहली फिल्म देवदास का संगीत निर्देशन सौंपा गया। यद्यपि चौथे दशक का फिल्म संगीत प्रारम्भिक प्रयोगशील रूप में था किन्तु इस फिल्म के गीत आज आठ दशक के बाद भी श्रोताओं को मुग्ध कर देते हैं। फिल्म में ठुमरी शैली के दो गीत विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। ठुमरी शैली पर आधारित पहला गीत है- ‘बालम आय बसो मोरे मन में...’। प्राकृतिक परिवेश में प्रणय निवेदन के प्रसंग में फिल्माया गया यह गीत राग काफी के स्वरों में है। दूसरी ठुमरी है- ‘पिया बिन नाहीं आवत चैन...’ जो वास्तव में राग झिंझोटी की एक परम्परागत ठुमरी है जिसका स्थायी और एक अन्तरा सहगल साहब ने अत्यन्त संवेदनशीलता के साथ गाया है।
राग - झिंझोटी : फिल्म - देवदास 1936 : ‘पिया बिन नाहीं आवत चैन...’ : कुन्दनलाल सहगल : संगीत – तिमिर वरन
राग झिंझोटी की यह विशेषता होती है कि यह श्रृंगार रस प्रधान, चंचल प्रवृत्ति का होते हुए भी अद्भुत रस, भ्रम, बेचैनी और आश्चर्य भाव की अभिव्यक्ति में पूर्ण सक्षम होता है। राग झिंझोटी की यह ठुमरी 1925 -26 में महाराज कोल्हापुर के राजगायक उस्ताद अब्दुल करीम खाँ के स्वरों में अत्यन्त लोकप्रिय थी। खाँ साहब किराना घराने के विलक्षण गायक थे। उन्हें उत्तर और दक्षिण भारतीय संगीत के बीच सेतु के रूप में जाना जाता था। दक्षिण भारत के कर्नाटक संगीत के कई रागों को उन्होने उत्तर भारतीय संगीत में प्रचलित किया था। फिल्म ‘देवदास’ के लिए इस गीत की रिकार्डिंग के बाद सहगल साहब की आवाज़ में इस ठुमरी को खाँ साहब ने सुना और सहगल साहब की गायन शैली की खूब तारीफ़ करते हुए उन्हें बधाई का एक सन्देश भी भेजा था। सहगल साहब ने परदे पर शराब के नशे में धुत देवदास की भूमिका में इस ठुमरी का स्थायी और एक अन्तरा गाया था। गायन के दौरान ठुमरी में किसी ताल वाद्य की संगति नहीं की गई है। पार्श्व संगीत के लिए केवल वायलिन और सरोद की संगति है। के.एल. सहगल की आवाज़ में राग झिंझोटी की इस फिल्मी ठुमरी के बाद हम इसी ठुमरी का पारम्परिक रूप उस्ताद अब्दुल करीम खाँ के स्वरों में प्रस्तुत कर रहे हैं।
राग - झिंझोटी : पारम्परिक ठुमरी : ‘पिया बिन नाहीं आवत चैन...’ : उस्ताद अब्दुल करीम खाँ
अब हम आज के इस अंक के आलेख और गीतों का समन्वित रूप को श्रव्य माध्यम में प्रस्तुत कर रहे हैं, जिसे संज्ञा टण्डन ने अपनी आवाज़ से सजाया है। आप इस प्रस्तुति का आनन्द लीजिए और हमे आज के इस अंक को यहीं विराम देने की अनुमति दीजिए।
ठुमरी राग झिंझोटी : ‘पिया बिन नाहीं आवत चैन...’ : फिल्मों के आँगन में ठुमकती पारम्परिक ठुमरी : वाचक स्वर – संज्ञा टण्डन
'स्वरगोष्ठी' का यह अंक 'रेडियो प्लेबैक इण्डिया' के पृष्ठ पर 24 अगस्त,
2014 को प्रकाशित / प्रसारित किया गया था। पूरी प्रस्तुति को देखने / सुनने
के लिए इस लिंक http://radioplaybackindia.blogspot.in/2014/08/swargoshthi-182-thumari-jhinjhoti.html पर जा सकते हैं।
वाचक स्वर : संज्ञा टण्डन
आलेख व प्रस्तुति : कृष्णमोहन मिश्र
आलेख व प्रस्तुति : कृष्णमोहन मिश्र