Friday, 12 September 2014

‘पिया बिन नाहीं आवत चैन...’ : SWARGOSHTHI – 182 : THUMARI JHINJHOTI


स्वरगोष्ठी – 182 में आज

फिल्मों के आँगन में ठुमकती पारम्परिक ठुमरी  - 1 : ठुमरी झिंझोटी

जब सहगल ने उस्ताद अब्दुल करीम खाँ की गायी ठुमरी को अपना स्वर दिया





‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर आज से आरम्भ हो रही श्रृंखला का शीर्षक है- ‘फिल्मों के आँगन में ठुमकती पारम्परिक ठुमरी’। दरअसल यह श्रृंखला लगभग दो वर्ष पूर्व ‘स्वरगोष्ठी’ में प्रकाशित / प्रसारित की गई थी। हमारे पाठकों / श्रोताओं को यह श्रृंखला सम्भवतः कुछ अधिक रुचिकर प्रतीत हुई थी। अनेक संगीत-प्रेमियों ने इसके पुनर्प्रसारण का आग्रह किया है। सभी सम्मानित पाठकों / श्रोताओं के अनुरोध का सम्मान करते हुए और पूर्वप्रकाशित श्रृंखला में थोड़ा परिमार्जन करते हुए पुनः प्रस्तुत कर रहे हैं। ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के कुछ स्तम्भ केवल श्रव्य माध्यम से प्रस्तुत किये जाते हैं तो कुछ स्तम्भ आलेख, चित्र और गीत-संगीत श्रव्य माध्यम के मिले-जुले रूप में प्रस्तुत होते हैं। आपका प्रिय स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ इस दूसरे माध्यम से प्रस्तुत होता आया है। इस अंक से हम एक नया प्रयोग कर रहे हैं। ‘स्वरगोष्ठी’ के परम्परागत रूप के साथ-साथ पूरे आलेख और गीत-संगीत को हम ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ की प्रमुख सहयोगी संज्ञा टण्डन की आवाज़ में भी प्रस्तुत कर रहे हैं। हमारे इस प्रयोग पर आप अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दीजिएगा। 
 

भी संगीत-प्रेमी श्रोताओं का आज से शुरू हो रही हमारी नई लघु श्रृंखला 'फिल्मों के आँगन में ठुमकती पारम्परिक ठुमरी’ में कृष्णमोहन मिश्र और संज्ञा टण्डन की ओर से हार्दिक स्वागत है। आपको शीर्षक से ही यह अनुमान हो गया होगा कि इस श्रृंखला का विषय फिल्मों में शामिल की गई उपशास्त्रीय गायन शैली ठुमरी है। सवाक फिल्मों के प्रारम्भिक दौर से फ़िल्मी गीतों के रूप में तत्कालीन प्रचलित पारसी रंगमंच के संगीत और पारम्परिक ठुमरियों के सरलीकृत रूप का प्रयोग आरम्भ हो गया था। विशेष रूप से फिल्मों के गायक-सितारे कुन्दनलाल सहगल ने अपने कई गीतों को ठुमरी अंग में गाकर फिल्मों में ठुमरी शैली की आवश्यकता की पूर्ति की थी। चौथे दशक के मध्य से लेकर आठवें दशक के अन्त तक की फिल्मों में सैकड़ों ठुमरियों का प्रयोग हुआ है। इनमे से अधिकतर ठुमरियाँ ऐसी हैं जो फ़िल्मी गीत के रूप में लिखी गईं और संगीतकार ने गीत को ठुमरी अंग में संगीतबद्ध किया। कुछ फिल्मों में संगीतकारों ने परम्परागत ठुमरियों का भी प्रयोग किया है। इस श्रृंखला में हम आपसे ऐसी ही कुछ चर्चित-अचर्चित फ़िल्मी ठुमरियों पर बात करेंगे।

आज के ठुमरी गीत पर चर्चा से पहले भारतीय संगीत की रस, रंग और भाव से परिपूर्ण ठुमरी शैली पर चर्चा आवश्यक है। ठुमरी उपशास्त्रीय संगीत की एक लोकप्रिय गायन शैली है। यद्यपि इस शैली के गीत रागबद्ध होते हैं, किन्तु ध्रुवपद और खयाल की तरह राग के कड़े प्रतिबन्ध नहीं रहते। रचना के शब्दों के अनुकूल रस और भाव की अभिव्यक्ति के लिए कभी-कभी गायक राग के निर्धारित स्वरों के साथ अन्य स्वरों का प्रयोग करने के लिए स्वतंत्र होते हैं। ऐसी ठुमरियों में जिस राग की प्रमुखता होती है, उसमें ‘मिश्र’ शब्द जोड़ दिया जाता है; जैसे 'मिश्र खमाज', 'मिश्र पहाडी', 'मिश्र काफी’ आदि। ठुमरियों में श्रृंगार और भक्ति रसों की प्रधानता होती है। कुछ ठुमरियों में इन दोनों रसों का अनूठा मेल भी मिलता है। ठीक उसी प्रकार जैसे सूफी गीतों और कबीर के निर्गुण पदों में उपरी आवरण तो श्रृंगार रस से प्रभावित रहता है, किन्तु आन्तरिक भाव आध्यात्म और भक्तिभाव की अनुभूति कराता है।

आइए, अब आज के ठुमरी गीत पर थोड़ी चर्चा कर ली जाए। इस श्रृंखला की पहली फ़िल्मी ठुमरी के रूप में हमने 1936 की फिल्म ‘देवदास’ का चयन किया है। यह फिल्म सुप्रसिद्ध उपन्यासकार शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय के इसी शीर्षक के उपन्यास पर बनाई गई थी। शरत बावू का यह उपन्यास 1901 में लिखा गया और 1917 में पुस्तक रूप में प्रकाशित हुआ था। देवदास पर सबसे पहले 1928 में 'इस्टर्न फिल्म सिंडिकेट' ने मूक फिल्म बनाई थी, जिसमे देवदास की भूमिका नरेश चन्द्रा ने निभाई थी। सवाक फिल्मों के युग में देवदास उपन्यास पर अब तक सात फ़िल्में बन चुकी हैं। अकेले 'न्यू थिएटर्स' ने ही चार विभिन्न भाषाओं में इस फिल्म का निर्माण किया था। 1935 में पी.सी. बरुआ (प्रथमेश चन्द्र बरुआ) के निर्देशन में देवदास का निर्माण बांग्ला भाषा में हुआ था। 1936 में श्री बरुआ के निर्देशन में ही हिन्दी में और 1937 में असमी भाषा में यह फिल्म बनी थी। 1936 में ही 'न्यू थिएटर्स' के बैनर से पी.वी. राव के निर्देशन में इस फिल्म के तमिल संस्करण का निर्माण भी किया गया था, किन्तु दक्षिण भारत में यह फिल्म बुरी तरह असफल रही। 1953 में तमिल और तेलुगु में ‘देवदास’ के निर्माण का पुनः प्रयास हुआ और इस बार दक्षिण भारत में यह द्विभाषी प्रयोग सफल रहा। 1955 में एक बार फिर विमल राय के निर्देशन में देवदास का निर्माण हुआ, जिसमें दिलीप कुमार देवदास की भूमिका में थे। इसके बाद 2002 में शाहरुख़ खाँ अभिनीत फिल्म देवदास का निर्माण हुआ था।

आज हम आपके लिए फिल्म देवदास के जिस गीत को लेकर उपस्थित हुए हैं वह 1936 में हिन्दी भाषा में निर्मित फिल्म देवदास का है। फिल्म के निर्देशक पी.सी. बरुआ थे और देवदास की भूमिका में कुन्दनलाल सहगल, पारो की भूमिका में जमुना बरुआ और चन्द्रमुखी की भूमिका में राजकुमारी ने अभिनय किया था। फिल्म के संगीतकार तिमिर वरन (भट्टाचार्य) थे। तिमिर वरन उस्ताद अलाउद्दीन खाँ के शिष्य और संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वानों के कुल से थे। साहित्य और संगीत में कुशल तिमिर वरन को 'न्यू थियेटर्स' में प्रवेश करने पर पहली फिल्म देवदास का संगीत निर्देशन सौंपा गया। यद्यपि चौथे दशक का फिल्म संगीत प्रारम्भिक प्रयोगशील रूप में था किन्तु इस फिल्म के गीत आज आठ दशक के बाद भी श्रोताओं को मुग्ध कर देते हैं। फिल्म में ठुमरी शैली के दो गीत विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। ठुमरी शैली पर आधारित पहला गीत है- ‘बालम आय बसो मोरे मन में...’। प्राकृतिक परिवेश में प्रणय निवेदन के प्रसंग में फिल्माया गया यह गीत राग काफी के स्वरों में है। दूसरी ठुमरी है- ‘पिया बिन नाहीं आवत चैन...’ जो वास्तव में राग झिंझोटी की एक परम्परागत ठुमरी है जिसका स्थायी और एक अन्तरा सहगल साहब ने अत्यन्त संवेदनशीलता के साथ गाया है।


राग - झिंझोटी : फिल्म - देवदास 1936 : ‘पिया बिन नाहीं आवत चैन...’ : कुन्दनलाल सहगल : संगीत – तिमिर वरन





राग झिंझोटी की यह विशेषता होती है कि यह श्रृंगार रस प्रधान, चंचल प्रवृत्ति का होते हुए भी अद्भुत रस, भ्रम, बेचैनी और आश्चर्य भाव की अभिव्यक्ति में पूर्ण सक्षम होता है। राग झिंझोटी की यह ठुमरी 1925 -26 में महाराज कोल्हापुर के राजगायक उस्ताद अब्दुल करीम खाँ के स्वरों में अत्यन्त लोकप्रिय थी। खाँ साहब किराना घराने के विलक्षण गायक थे। उन्हें उत्तर और दक्षिण भारतीय संगीत के बीच सेतु के रूप में जाना जाता था। दक्षिण भारत के कर्नाटक संगीत के कई रागों को उन्होने उत्तर भारतीय संगीत में प्रचलित किया था। फिल्म ‘देवदास’ के लिए इस गीत की रिकार्डिंग के बाद सहगल साहब की आवाज़ में इस ठुमरी को खाँ साहब ने सुना और सहगल साहब की गायन शैली की खूब तारीफ़ करते हुए उन्हें बधाई का एक सन्देश भी भेजा था। सहगल साहब ने परदे पर शराब के नशे में धुत देवदास की भूमिका में इस ठुमरी का स्थायी और एक अन्तरा गाया था। गायन के दौरान ठुमरी में किसी ताल वाद्य की संगति नहीं की गई है। पार्श्व संगीत के लिए केवल वायलिन और सरोद की संगति है। के.एल. सहगल की आवाज़ में राग झिंझोटी की इस फिल्मी ठुमरी के बाद हम इसी ठुमरी का पारम्परिक रूप उस्ताद अब्दुल करीम खाँ के स्वरों में प्रस्तुत कर रहे हैं।


राग - झिंझोटी : पारम्परिक ठुमरी : ‘पिया बिन नाहीं आवत चैन...’ : उस्ताद अब्दुल करीम खाँ




अब हम आज के इस अंक के आलेख और गीतों का समन्वित रूप को श्रव्य माध्यम में प्रस्तुत कर रहे हैं, जिसे संज्ञा टण्डन ने अपनी आवाज़ से सजाया है। आप इस प्रस्तुति का आनन्द लीजिए और हमे आज के इस अंक को यहीं विराम देने की अनुमति दीजिए।


ठुमरी राग झिंझोटी : ‘पिया बिन नाहीं आवत चैन...’ : फिल्मों के आँगन में ठुमकती पारम्परिक ठुमरी : वाचक स्वर – संज्ञा टण्डन 





'स्वरगोष्ठी' का यह अंक 'रेडियो प्लेबैक इण्डिया' के पृष्ठ पर 24 अगस्त, 2014 को प्रकाशित / प्रसारित किया गया था। पूरी प्रस्तुति को देखने / सुनने के लिए इस लिंक http://radioplaybackindia.blogspot.in/2014/08/swargoshthi-182-thumari-jhinjhoti.html पर जा सकते हैं। 



वाचक स्वर : संज्ञा टण्डन  
आलेख व प्रस्तुति : कृष्णमोहन मिश्र

Friday, 22 March 2013

अतिथि संगीतज्ञ पं. श्रीकुमार मिश्र का पृष्ठ


स्वरगोष्ठी – 114 में आज

स्वर एक राग अनेक 



‘स्वरगोष्ठी’ के आज के इस विशेष अंक में, मैं कृष्णमोहन मिश्र अपने सभी संगीत-प्रेमी पाठकों और श्रोताओं का हार्दिक स्वागत करता हूँ। मित्रों, आज का यह अंक एक विशेष अंक है। विशेष इसलिए कि यह अंक संगीत-जगत के एक जाने-माने संगीतज्ञ प्रस्तुत कर रहे हैं। दरअसल इस वर्ष के कार्यक्रमों की समय-सारिणी तैयार करते समय ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ ने माह के पाँचवें रविवार की ‘स्वरगोष्ठी’ किसी संगीतज्ञ लेखक से प्रस्तुत कराने का निश्चय किया था। आज माह का पाँचवाँ रविवार है और आपके लिए आज का यह अंक देश के जाने-माने इसराज व मयूर वीणा-वादक और संगीत-शिक्षक पण्डित श्रीकुमार मिश्र प्रस्तुत कर रहे है। ‘स्वरगोष्ठी’ के आज के अंक के लिए उन्होने तीन ऐसे राग- पूरिया, सोहनी और मारवा का चयन किया है, जिनमें समान स्वरों का प्रयोग किया जाता है। लीजिए, श्रीकुमार जी प्रस्तुत कर रहे हैं, इन तीनों रागों में समानता और कुछ अन्तर की चर्चा, जिनसे इन रागों में और उनकी प्रवृत्ति में अन्तर आ जाता है। 

‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ द्वारा संचालित ‘स्वरगोष्ठी’ के संगीत-मंच पर संगीतानुरागियों से कुछ बातचीत करने का आज मुझे अवसर दिया गया है, इसके लिए मैं, श्रीकुमार मिश्र इस स्तम्भ के सम्पादक-मण्डल को धन्यवाद ज्ञापित करता हूँ। आज मैं आपका ध्यान भारतीय संगीत के खजाने के तीन ऐसे रागों की तरफ आकर्षित करूँगा, जिनमें प्रयोग किये जाने वाले स्वर-समूह तो समान होते हैं, किन्तु उनके नाम, प्रवृत्ति और भाव में पर्याप्त भेद होता है। ऐसा ही एक स्वर-समूह है-

सा नी रे(कोमल) ग म(तीव्र) ध नी सां

ये स्वर-समूह तीन रागों- पूरिया, मारवा और सोहनी में प्रयुक्त होते हैं। जब तीनों रागों में स्वर एक है तो भाव अलग-अलग क्यों है? आज के आलेख में हम इसी ‘क्यों’ का उत्तर खोजने का प्रयास करते हैं। जब व्यक्ति दुःखी होकर भारी मन से अभिव्यक्ति देता है तो उसकी आवाज़ अपेक्षाकृत धीमी होती है। ये स्वर इस आवाज़ में राग पूरिया कायम करते हैं। इसी प्रकार जब क्लान्त और व्यथित मन को विश्रान्ति की तलाश होती है तब वह मध्यम आवाज़ में इन स्वरों का उच्चार करेगा, तब मारवा का रूप बनता है। और जब पीड़ा से त्रस्त होकर चीख-चीख कर पुकारने लगे तो यही स्वर राग सोहनी की उत्पत्ति करते हैं। राग पूरिया में वादी स्वर गान्धार और संवादी स्वर निषाद है। गान्धार व्यथा को उभारता है और निषाद थोड़ी देर के लिए शान्ति व एकाग्रता प्रदान कर देता है। भावानुसार पूरिया में विलम्बित रचनाएँ अत्यन्त भावपूर्ण प्रतीत होती हैं। इस राग के गायन-वादन का समय सूर्यास्त के बाद होता है। राग पूरिया में मींड़ के द्वारा भावों को एकसूत्र में रखा जाता है। आपके समक्ष राग पूरिया का स्वरूप और भाव स्पष्ट करने के उद्देश्य मैं आपको विख्यात गायक उस्ताद राशिद खाँ का गाया इस राग में एक खयाल सुनवाता हूँ।


राग पूरिया : ‘फूलवन की सेज बिछाओ...’ : उस्ताद राशिद खाँ



राग पूरिया में प्रयोग किये जाने वाले स्वरों को राग मारवा में भी प्रयोग किया जाता है, परन्तु इसकी प्रवृत्ति और भाव में पूरिया की तुलना में काफी अन्तर आता है। राग मारवा का वादी स्वर धैवत तथा संवादी स्वर ऋषभ होता है। धैवत स्वर उलझन से युक्त व्यथित व क्लान्त मन की अभिव्यक्ति कर देता है और ऋषभ (अपनी मूल श्रुति से उतरा हुआ) मन को शान्ति और विश्रान्ति प्रदान कर देता है। मारवा राग में मध्यलय की रचनाओं का प्रयोग अधिक स्पष्ट भाव कायम करता है। मारवा एक राग का नाम है और थाट का नाम भी होता है और राग मारवा, थाट मारवा का आश्रय राग माना जाता है। यह सूर्यास्त के समय प्रस्तुत किया जाने वाला राग होता है। राग पूरिया की तुलना में राग मारवा में मींड़ के बजाय सीधे स्वरों का सपाट प्रयोग अधिक करके भाव स्पष्ट किया जाता है। इस राग के स्वरूप को स्पष्ट करने के लिए मैं चाहूँगा कि आप सुप्रसिद्ध गायक पण्डित जसराज के स्वरों में राग मारवा की एक भक्तिपरक रचना सुनिए और राग की भावानुभूति कीजिए।


राग मारवा : ‘चरण प्रीत करुणानिधान की...’ : पण्डित जसराज





राग पूरिया और मारवा की तरह राग सोहनी में भी समान स्वरों का प्रयोग किया जाता है, किन्तु इसके प्रभाव और भावाभिव्यक्ति में पर्याप्त अन्तर हो जाता है। राग सोहनी का वादी स्वर धैवत और संवादी स्वर गान्धार होता है। धैवत पीड़ा की अभिव्यक्ति करने में समर्थ होता है। ‘नी सां रें (कोमल) सां’ की स्वर संगति से तीव्र पुकार का वातावरण निर्मित होता है। संवादी गान्धार कुछ देर के लिए इस उत्तेजना को शान्त कर सुकून देता है। वास्तव में वादी और संवादी स्वर राग के प्राणतत्त्व होते हैं, जिनसे रागों के भावों का सृजन होता है। रात्रि के तीसरे प्रहर में राग सोहनी के भाव अधिक स्पष्ट होते हैं। इस राग में मींड़ एवं गमक को कसे हुए ढंग से मध्यलय में प्रस्तुत करने से राग का भाव अधिक मुखरित होता है। अब चलते-चलते तीनों रागों- पूरिया, मारवा और सोहनी के स्वरों के चलन पर एक दृष्टि डालते हैं, जिससे एक ही स्वर के बावजूद रागों में उत्पन्न होने वाले अन्तर स्पष्ट हो जाएँगे।आप इन स्वर-संयोजनों का तुलनात्मक अवलोकन कीजिए और उसके बाद राग सोहनी की एक रचना पण्डित कुमार गन्धर्व के स्वरों में सुनिए।

राग पूरिया : नी रे(कोमल) ग, म(तीव्र) ध ग म(तीव्र) ग, म(तीव्र) रे(कोमल) ग s रे(कोमल) सा

राग मारवा : नी रे(कोमल) ग म(तीव्र) ध s, म(तीव्र) ग, रे(कोमल), ग रे(कोमल) सा

राग सोहनी : ग s म(तीव्र) ध नी सां s नी ध नी ध, म(तीव्र) ग, ग म(तीव्र) ध ग म(तीव्र) ग, रे(कोमल) सा

राग सोहनी के स्वरूप को स्पष्ट करने के लिए अब आप इस राग में निबद्ध एक रचना सुनिए, जिसे पण्डित कुमार गन्धर्व ने प्रस्तुत किया है।


राग सोहनी : ‘रंग न डारो श्याम जी...’ : पण्डित कुमार गन्धर्व





आज की पहेली

‘स्वरगोष्ठी’ के 114वें अंक की पहेली में आज हम आपको एक राग आधारित फिल्मी गीत का अंश सुनवा रहे है। इसे सुन कर आपको दो प्रश्नों के उत्तर देने हैं। पहेली के 120वें अंक तक जिस प्रतिभागी के सर्वाधिक अंक होंगे, उन्हें इस श्रृंखला (सेगमेंट) का विजेता घोषित किया जाएगा।



1 - संगीत के इस अंश को सुन कर पहचानिए कि यह गीत किस राग पर आधारित है?

2 – यह गीत-अंश किस ताल में निबद्ध किया गया है?

आप अपने उत्तर केवल swargoshthi@gmail.com पर ही शनिवार मध्यरात्रि तक भेजें। comments में दिये गए उत्तर मान्य नहीं होंगे। विजेता का नाम हम ‘स्वरगोष्ठी’ के 116वें अंक में प्रकाशित करेंगे। इस अंक में प्रस्तुत गीत-संगीत, राग, अथवा कलासाधक के बारे में यदि आप कोई जानकारी या अपने किसी अनुभव को हम सबके बीच बाँटना चाहते हैं तो हम आपका इस संगोष्ठी में स्वागत करते हैं। आप पृष्ठ के नीचे दिये गए comments के माध्यम से या swargoshthi@gmail.com अथवा radioplaybackindia@live.com पर भी अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर सकते हैं।


पिछली पहेली के विजेता 


‘स्वरगोष्ठी’ के 112वें अंक में हमने आपको 1996 की एक संगीतप्रधान फिल्म ‘सरदारी बेगम’ से ठुमरी अंग का एक होली गीत सुनवा कर आपसे दो प्रश्न पूछे थे। पहले प्रश्न का सही उत्तर है- राग पीलू और दूसरे प्रश्न का सही उत्तर है- ताल दादरा। दोनों प्रश्नो के सही उत्तर बैंगलुरु के पंकज मुकेश, जौनपुर के डॉ. पी.के. त्रिपाठी, लखनऊ के प्रकाश गोविन्द और जबलपुर से क्षिति तिवारी ने दिया है। चारो प्रतिभागियों को ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ की ओर से हार्दिक बधाई।


झरोखा अगले अंक का 


मित्रों, ‘स्वरगोष्ठी’ पर पिछले दो अंकों से विशेष अवसर के कारण हमारे लघु श्रृंखला ‘रागों के रंग रागमाला गीत के संग’ के आगामी अंकों को हमे दो सप्ताह का विराम देना पड़ा। अगले रविवार को हम इस श्रृंखला को जारी रखते हुए आपको एक और रागमाला गीत सुनवाएँगे और उस गीत पर आपसे चर्चा भी करेंगे। प्रत्येक रविवार को प्रातः साढ़े नौ बजे हम ‘स्वरगोष्ठी’ के एक नए अंक के साथ उपस्थित होते हैं। आप सब संगीत-प्रेमियों से अनुरोध है कि इस सांगीतिक अनुष्ठान में आप भी हमारे सहभागी बनें। आपके सुझाव और सहयोग से हम इस स्तम्भ को और अधिक उपयोगी स्वरूप प्रदान कर सकते हैं।


आलेख : पं. श्रीकुमार मिश्र
प्रस्तुति : कृष्णमोहन मिश्र

Friday, 25 January 2013

दिन के चौथे प्रहर के कुछ आकर्षक राग

SWARGOSHTHI – 106 – 27 जनवरी 2013   


स्वरगोष्ठी – 106 में आज

राग और प्रहर – 4

गोधूली बेला के श्रम-परिहार करते राग


‘स्वरगोष्ठी’ के 106ठें अंक में, मैं कृष्णमोहन मिश्र आप सब संगीत-प्रेमियों का हार्दिक स्वागत करता हूँ। इन दिनों आपके प्रिय स्तम्भ पर लघु श्रृंखला ‘राग और प्रहर’ जारी है। पिछले अंक में हमने दिन के तीसरे प्रहर के रागों की चर्चा की थी। आज बारी है, चौथे प्रहर के रागों की। इस प्रहर में सूर्य अस्ताचलगामी होता है। इस प्रहर के उत्तरार्द्ध काल को गोधूली बेला भी कहा जाता है। चूँकि इस समय गायों का झुण्ड चारागाहों से वापस लौटता है और उनके चलने से धूल का एक गुबार उठता है, इसीलिए इसे गोधूली बेला कहा जाता है। इस प्रहर के रागों में ऐसी स्वर-संगतियाँ होती हैं, जिनसे दिन भर के श्रम से तन और मन को शान्ति मिलती है। आज के अंक में हम इस प्रहर के हेमन्त, पटदीप, मारवा और गौड़ सारंग रागों की चर्चा करेंगे। 


दिन का चौथा प्रहर, अपराह्न तीन बजे से लेकर सूर्यास्त होने के बीच की अवधि को माना जाता है। यह वह समय होता है, जब जन-जीवन अपने दैनिक शारीरिक और मानसिक क्रियाओं से थका-हारा होता है तथा उसे थोड़ी विश्रान्ति की तलाश होती है। ऐसे में दिन के चौथे प्रहर के राग उसे राहत देते हैं। चौथे प्रहर में प्रयोग किये जाने वाले रागों में राग ‘गौड़ सारंग’ एक ऐसा राग है जिसे तीसरे प्रहर में भी गाया-बजाया जाता है। सारंग अंग से संचालित होने वाले इस राग को कल्याण थाट के अन्तर्गत माना जाता है। सम्पूर्ण-सम्पूर्ण जाति के इस राग के आरोह और अवरोह दोनों में वक्र गति से स्वर लगाए जाते हैं। राग में दोनों मध्यम का और शेष सभी शुद्ध स्वरों का प्रयोग होता है। आलाप में पंचम, ऋषभ, षडज और निषाद, ऋषभ, षडज का आवर्तन किया जाता है। इसका वादी स्वर गान्धार और संवादी स्वर धैवत अथवा निषाद होता है।

आज हम आपको राग ‘गौड़ सारंग’ पर आधारित एक फिल्मी गीत सुनवा रहे हैं। संगीतकार अनिल विश्वास ने 1953 में फिल्म 'हमदर्द' के लिए एक गीत 'रागमाला' में तैयार किया था। ‘रगमाला’ संगीत का वह प्रकार होता है, जब किसी गीत में एक से अधिक रागों का प्रयोग हो और सभी राग स्वतंत्र रूप से रचना में उपस्थित हों। अनिल विश्वास ने गीत के चार अन्तरों को चार अलग-अलग रागों में संगीतबद्ध किया था। उन दिनों का चलन यह था कि ऐसे गीतों को गाने के लिए फिल्म जगत के बाहर के विशेषज्ञों को बुलाया जाता था। परन्तु अनिल विश्वास ने इस युगलगीत में पुरुष स्वर के लिए मन्ना डे का और नारी स्वर के लिए लता मंगेशकर का चयन किया। फिल्म 'हमदर्द' के इस गीत के बोल हैं- ‘ऋतु आए ऋतु जाए सखी री मन के मीत न आए...’। गीत की स्थायी की पंक्ति से लेकर अन्तरे के समापन तक राग 'गौड़ सारंग' के स्वरों में पिरोया गया है। गीत के शेष तीन अन्तरे अलग-अलग रागों में निबद्ध हैं। इस गीत को ऐतिहासिक बनाने में वाद्य संगीत के श्रेष्ठतम कलाकारों का योगदान भी रहा। गीत में सुप्रसिद्ध बाँसुरी वादक पन्नालाल घोष और सारंगी वादक पण्डित रामनारायण ने संगति की थी। आज हम प्रेम धवन के लिखे, अनिल विश्वास द्वारा संगीतबद्ध किये तथा मन्ना डे व लता मंगेशकर के स्वरों में 'हमदर्द' फिल्म के इस 'रागमाला' गीत का पहला अन्तरा सुनते हैं।


राग ‘गौड़ सारंग’ : फिल्म ‘हमदर्द’ : ‘ऋतु आए ऋतु जाए सखी री...’ : मन्ना डे और लता मंगेशकर


दिन के चौथे प्रहर का एक बेहद प्रचलित राग ‘पटदीप’ है। इसे राग ‘पटदीपिका’ भी कहते हैं। काफी थाट के अन्तर्गत माना जाने वाला राग पटदीप औड़व-सम्पूर्ण जाति का राग है। इसके आरोह में ऋषभ और धैवत स्वर का प्रयोग नहीं होता। गान्धार कोमल और शेष सभी स्वर शुद्ध प्रयोग किए जाते हैं। इस राग का वादी स्वर पंचम और संवादी स्वर षडज होता है। आज के अंक में हम आपको राग पटदीप में निबद्ध श्रृंगार रस प्रधान एक मोहक खयाल रचना सुनवाते हैं। इसे प्रस्तुत कर रहे हैं, रामपुर, सहसवान घराने के जाने-माने गायक उस्ताद राशिद खाँ। राग पटदीप के इस खयाल के बोल हैं- ‘रंग रँगीला बनरा मोरा हमरी बात न माने...’ और यह द्रुत एकताल में निबद्ध है। तबला संगति पण्डित विश्वनाथ शिरोड़कर ने की है।


राग ‘पटदीप’ : ‘रंग रँगीला बनरा मोरा...’ : उस्ताद राशिद खाँ




चौथे प्रहर के रागों में ‘हेमन्त’ भी एक बेहद मधुर राग है। इसे राग ‘हेम’ भी कहा जाता है। कुछ विद्वानों का मत है कि उस्ताद अलाउद्दीन खाँ ने इस राग का सृजन किया था। परन्तु फिल्म संगीतकार एस.एन. त्रिपाठी के मतानुसार तानसेन इस राग के सर्जक थे और उन्होने इस राग की एक प्राचीन ध्रुवपद बन्दिश- ‘सुध बिसर गई आज अपने गुनन की...’ की रचना की थी। श्री त्रिपाठी ने इस ध्रुवपद रचना को 1962 की अपनी फिल्म ‘संगीत सम्राट तानसेन’ में भी इस्तेमाल किया था। ‘हेमन्त’ औड़व-सम्पूर्ण जाति का राग है, जिसे पूर्वी थाट के अन्तर्गत माना जाता है। इसके आरोह में गान्धार धैवत स्वर का प्रयोग नहीं होता। इसमें ऋषभ, गान्धार धैवत स्वर कोमल और मध्यम स्वर तीव्र प्रयोग किया जाता है। इसका वादी स्वर ऋषभ और संवादी पंचम होता है। यह ऋतु प्रधान राग भी है। हेमन्त ऋतु में यह किसी भी समय गाया-बजाया जा सकता है, किन्तु अन्य परिवेश में इसे सूर्यास्त से पहले गाने-बजाने की परम्परा है। इस राग में उप-शास्त्रीय और सुगम संगीत की रचनाएँ खूब निखरती है। आज हम आपको राग ‘हेमन्त’ की एक बेहद लोकप्रिय ठुमरी- ‘याद पिया की आए...’ सुनवाते हैं। इसे सुप्रसिद्ध गायक उस्ताद बड़े गुलाम अली खाँ ने बड़े भावपूर्ण अंदाज़ में प्रस्तुत किया है।

राग ‘हेमन्त’ : ठुमरी- ‘याद पिया की आए...’ : उस्ताद बड़े गुलाम अली खाँ



लघु श्रृंखला ‘राग और प्रहर’ की आज की कड़ी में हम चौथे प्रहर के रागों की चर्चा कर रहे हैं। इस प्रहर में में गाये-बजाये जाने वाले रागों में ‘मारवा’ एक अत्यन्त भावपूर्ण राग है। यह मारवा थाट का आश्रय राग है, जिसकी जाति षाड़व-षाड़व है। इसमें पंचम स्वर का प्रयोग नहीं किया जाता। कोमल ऋषभ और तीव्र मध्यम स्वर का प्रयोग होता है। पूर्वांग प्रधान इस राग का वादी स्वर धैवत और संवादी स्वर ऋषभ होता है। राग मारवा में प्रयोग किये जाने वाले स्वर राग पूरिया और सोहनी में भी होते हैं। परन्तु राग पूरिया का चलन सप्तक के पूर्वांग में और सोहनी का चलन सप्तक के उत्तरांग में होता है, जबकि मारवा का चलन सप्तक के मध्य अंग में होता है। इसके अलावा मारवा में ऋषभ और धैवत स्वर बलवान होता है, जबकि पूरिया में निषाद और गान्धार स्वर बली होते हैं। राग मारवा के स्वरों में गोधूली बेला के परिवेश को सार्थक बनाने की अद्भुत क्षमता होती है। अब हम आपको राग मारवा की एक मधुर रचना सितार पर सुनवाते हैं। वादक है, विश्वविख्यात सितार-वादक उस्ताद विलायत खाँ। तबला संगति पण्डित अनिंदों चटर्जी ने की है। आप मधुर सितार-वादन का आनन्द लीजिए और मुझे आज के इस अंक को यहीं विराम लेने की अनुमति दीजिए।


राग ‘मारवा’ : मध्य लय तीनताल का तराना : उस्ताद विलायत खाँ

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आज की पहेली

‘स्वरगोष्ठी’ के 106ठें अंक की पहेली में आज हम आपको एक राग आधारित फिल्मी गीत का अंश सुनवा रहे है। इसे सुन कर आपको दो प्रश्नों के उत्तर देने हैं। पहेली के 110वें अंक तक जिस प्रतिभागी के सर्वाधिक अंक होंगे, उन्हें इस श्रृंखला का विजेता घोषित किया जाएगा।



1 - संगीत के इस अंश को सुन कर पहचानिए कि यह गीत किस राग पर आधारित है?

2 - इस गीत को किस ताल में निबद्ध किया गया है?

आप अपने उत्तर केवल maswargoshthi@gil.com पर शनिवार मध्यरात्रि तक भेजें। comments में दिये गए उत्तर मान्य नहीं होंगे। विजेता का नाम हम ‘स्वरगोष्ठी’ के 108वें अंक में प्रकाशित करेंगे। इस अंक में प्रस्तुत गीत-संगीत, राग, अथवा कलासाधक के बारे में यदि आप कोई जानकारी या अपने किसी अनुभव को हम सबके बीच बाँटना चाहते हैं तो हम आपका इस संगोष्ठी में स्वागत करते हैं। आप पृष्ठ के नीचे दिये गए comments के माध्यम से अथवा radioplaybackindia@live.com पर भी अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर सकते हैं।

पिछली पहेली के विजेता

‘स्वरगोष्ठी’ के 104थे अंक में हमने आपको 1966 में बनी फिल्म ‘मेरा साया’ से एक राग आधारित गीत का अंश सुनवा कर आपसे दो प्रश्न पूछे थे। पहले प्रश्न का सही उत्तर है- राग भीमपलासी और दूसरे प्रश्न का सही उत्तर है- संगीतकार मदनमोहन। दोनों प्रश्नो के सही उत्तर जबलपुर की क्षिति तिवारी, लखनऊ के प्रकाश गोविन्द और हमारे एक नए पाठक मिनिसोटा, अमेरिका से दिनेश कृष्णजोइस ने दिया है। बैंगलुरु के पंकज मुकेश और जौनपुर के डॉ. पी.के. त्रिपाठी ने एक-एक प्रश्न का ही सही जवाब दिया है। इन्हें एक-एक अंक से ही सन्तोष करना होगा। पाँचो प्रतिभागियों को ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ की ओर से हार्दिक शुभकामनाएँ।

झरोखा अगले अंक का

मित्रों, ‘स्वरगोष्ठी’ पर इन दिनो लघु श्रृंखला ‘राग और प्रहर’ जारी है। आगामी अंक में हम आपके साथ रात्रि के पहले प्रहर अर्थात सूर्यास्त के बाद से लेकर रात्रि के नौ बजे के मध्य प्रस्तुत किये जाने वाले रागों पर चर्चा करेंगे। प्रत्येक रविवार को प्रातः साढ़े नौ बजे हम ‘स्वरगोष्ठी’ के एक नए अंक के साथ उपस्थित होते हैं। आप सब संगीत-प्रेमियों से अनुरोध है कि इस सांगीतिक अनुष्ठान में आप भी हमारे सहभागी बनें। आपके सुझाव और सहयोग से हम इस स्तम्भ को और अधिक उपयोगी स्वरूप प्रदान कर सकते हैं।


प्रस्तुति : कृष्णमोहन मिश्र 


 

दिन के तीसरे प्रहर के कुछ मोहक राग



 

स्वरगोष्ठी-105 में आज
राग और प्रहर – 3

कृष्ण की बाँसुरी और राग वृन्दावनी सारंग 



‘स्वरगोष्ठी’ के 105वें अंक में, मैं कृष्णमोहन मिश्र आप सब संगीत-प्रेमियों का हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ। इन दिनों आपके इस प्रिय स्तम्भ में लघु श्रृंखला ‘राग और प्रहर’ जारी है। गत सप्ताह हमने आपसे दिन के दूसरे प्रहर के कुछ रागों के बारे में चर्चा की थी। आज दिन के तीसरे प्रहर गाये-बजाये जाने वाले रागों पर चर्चा की बारी है। दिन का तीसरा प्रहर, अर्थात मध्याह्न से लेकर अपराह्न लगभग तीन बजे तक की अवधि के बीच का माना जाता है। इस अवधि में सूर्य की सर्वाधिक ऊर्जा हमे मिलती है और इसी अवधि में मानव का तन-मन अतिरिक्त ऊर्जा संचय भी करता है। आज के अंक में हम आपके लिए तीसरे प्रहर के रागों में से वृन्दावनी सारंग, शुद्ध सारंग, मधुवन्ती और भीमपलासी रागों की कुछ रचनाएँ प्रस्तुत करेंगे।


सारंग अंग के रागों में वृन्दावनी सारंग और शुद्ध सारंग राग तीसरे प्रहर के प्रमुख राग माने जाते हैं। यह मान्यता है कि श्रीकृष्ण अपनी प्रिय बाँसुरी पर वृन्दावनी सारंग और मेघ राग की अवतारणा किया करते थे। सारंग का अर्थ होता है मयूर और कृष्ण द्वारा दिन के तीसरे प्रहर वृन्दावन के कुंजों में अपने सखाओं के संग इस राग की अवतारणा की परिकल्पना के कारण ही वृन्दावनी सारंग नाम प्रचलन में आया होगा। वर्तमान में राग वृन्दावनी सारंग काफी थाट के अन्तर्गत माना जाता है। औड़व-औड़व जाति के इस राग के आरोह में शुद्ध निषाद और अवरोह में कोमल निषाद, अर्थात दोनों निषाद का प्रयोग किया जाता है। इस राग में गान्धार और धैवत स्वरों का प्रयोग नहीं होता। शेष सभी स्वर शुद्ध प्रयोग किया जाता है। इसका वादी स्वर ऋषभ और संवादी स्वर पंचम होता है। सामान्य परिवेश में इस राग का गायन-वादन दिन के तीसरे प्रहर में ही किया जाता है, परन्तु ग्रीष्म ऋतु की चरम अवस्था और वर्षा ऋतु का आहट देने वाले कजरारे मेघों के एकत्रीकरण के परिवेश का सार्थक चित्रण करने में भी राग वृन्दावनी सारंग पूर्ण समर्थ होता है। अब हम आपको राग वृन्दावनी सारंग में निबद्ध एक मध्य-द्रुत तीनताल की रचना बाँसुरी पर सुनवाते हैं। वादक हैं आश्विन श्रीनिवासन्।

राग वृन्दावनी सारंग : बाँसुरी - मध्य-द्रुत तीनताल की रचना : आश्विन श्रीनिवासन् 


दिन के तीसरे प्रहर अर्थात मध्याह्न से लेकर अपराह्न तक की अवधि का एक और राग है, शुद्ध सारंग। आरोह में पाँच और अवरोह में छह स्वरों, अर्थात औड़व-षाडव जाति के इस राग के आरोह में गान्धार और धैवत स्वर तथा अवरोह में गान्धार स्वर का प्रयोग वर्जित है। साथ ही आरोह में तीव्र मध्यम स्वर तथा अवरोह में शुद्ध मध्यम स्वर का प्रयोग किया जाता है। इस राग को कुछ संगीतकार कल्याण थाट से तो कुछ बिलावल थाट के अन्तर्गत मानते हैं। आपको राग शुद्ध सारंग का एक मनमोहक उदाहरण सुनवाने के लिए एक बार फिर हमने बाँसुरी वाद्य का ही चयन किया है। विश्वविख्यात बाँसुरी-वादक पण्डित हरिप्रसाद चौरसिया के प्रिय रागों में राग शुद्ध सारंग भी एक राग है। उन्हीं का बजाया राग शुद्ध सारंग का आकर्षक आलाप अब हम आपको सुनवाते हैं।

राग शुद्ध सारंग : बाँसुरी – आलाप : पण्डित हरिप्रसाद चौरसिया


दिन के तीसरे प्रहर में ही गाया-बजाया जाने वाला एक और मधुर राग है, मधुवन्ती। इस राग के बारे में यह तथ्य प्रचलित है कि मैहर घराने के सुप्रसिद्ध सरोद-वादक उस्ताद अली अकबर खाँ ने कर्नाटक पद्यति के 29वें मेलकर्ता राग धर्मावती के आरोह से ऋषभ और धैवत को हटा कर इस राग को स्वरूप दिया। स्वयं उस्ताद अली अकबर खाँ, पण्डित रविशंकर और इनके शिष्यों ने इस राग को प्रचारित-प्रसारित किया। औड़व-सम्पूर्ण जाति के इस राग के आरोह में ऋषभ और धैवत स्वरों का प्रयोग नहीं होता। आरोह में कोमल गान्धार और तीव्र मध्यम तथा अवरोह में इन स्वरों के साथ शुद्ध धैवत और कोमल ऋषभ स्वरों का प्रयोग किया जाता है। इस राग का वादी स्वर पंचम और संवादी स्वर षडज होता है। अब हम आपको राग मधुवन्ती की एक मध्य लय की रचना सरोद पर ही सुनवाते है। वादक हैं, उस्ताद अली अकबर खाँ।

राग मधुवन्ती : सरोद – मध्यलय की गत : उस्ताद अली अकबर खाँ


तीसरे प्रहर में अधिकाधिक प्रयोग किया जाने वाला एक राग भीमपलासी है। काफी थाट के अन्तर्गत माना जाने वाला भीमपलासी, औड़व-सम्पूर्ण जाति का राग होता है। इसमें गान्धार व निषाद कोमल तथा अन्य स्वर शुद्ध प्रयोग किये जाते हैं। इसके आरोह में ऋषभ और धैवत स्वर वर्जित होता है, किन्तु अवरोह में सभी सातों स्वरों का प्रयोग किया जाता है। इस राग का वादी स्वर पंचम और संवादी स्वर तार सप्तक का षडज होता है। कुछ विद्वान वादी स्वर के रूप में मध्यम का प्रयोग भी करते हैं। आज के इस अंक में अब हम आपको राग भीमपलासी पर आधारित एक फिल्मी गीत सुनवाते हैं। 1966 में सुनील दत्त और साधना अभिनीत एक फिल्म ‘मेरा साया’ का प्रदर्शन हुआ था। इस फिल्म के संगीत निर्देशक मदनमोहन ने राग भीमपलासी के सुरों में गीत- ‘नैनों में बदरा छाए...’ संगीतबद्ध किया था। गीतकार राजा मेंहदी अली खाँ के शब्दों को लता मंगेशकर के स्वरों का साथ मिला था। राग भीमपलासी पर आधारित इस फिल्मी गीत का आप रसास्वादन कीजिए और मुझे आज के इस अंक को यहीं विराम देने की अनुमति दीजिए।

राग भीमपलासी : फिल्म – मेरा साया : ‘नैनों में बदरा छाए...’ : लता मंगेशकर


आज की पहेली

‘स्वरगोष्ठी’ की 105वीं संगीत पहेली में हम आपको एक राग आधारित फिल्मी गीत का अंश सुनवा रहे है। इसे सुन कर आपको दो प्रश्नों के उत्तर देने हैं। ‘स्वरगोष्ठी’ के 110वें अंक तक जिस प्रतिभागी के सर्वाधिक अंक होंगे, उन्हें इस श्रृंखला का विजेता घोषित किया जाएगा।


1 - संगीत के इस अंश को सुन कर पहचानिए कि यह गीत किस राग पर आधारित है?

2 – यह गीत किस ताल में निबद्ध है?

आप अपने उत्तर केवल swargoshthi@gmail.com पर ही शनिवार मध्यरात्रि तक भेजें। comments में दिये गए उत्तर मान्य नहीं होंगे। विजेता का नाम हम ‘स्वरगोष्ठी’ के 107वें अंक में प्रकाशित करेंगे। इस अंक में प्रस्तुत गीत-संगीत, राग, अथवा कलासाधक के बारे में यदि आप कोई जानकारी या अपने किसी अनुभव को हम सबके बीच बाँटना चाहते हैं तो हम आपका इस संगोष्ठी में स्वागत करते हैं। आप पृष्ठ के नीचे दिये गए comments के माध्यम से अथवा radioplaybackindia@live.com पर भी अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर सकते हैं।

पिछली पहेली के विजेता

‘स्वरगोष्ठी’ के 103वें अंक में हमने आपको 1991 में बनी फिल्म ‘लेकिन’ से राग गूजरी अथवा गूर्जरी तोड़ी पर आधारित एक गीत का अंश सुनवा कर आपसे दो प्रश्न पूछे थे। पहले प्रश्न का सही उत्तर है- राग गूजरी या गूर्जरी तोड़ी और दूसरे प्रश्न का सही उत्तर है- गायक हृदयनाथ और गायिका लता मंगेशकर। दोनों प्रश्नो के सही उत्तर एकमात्र जबलपुर की क्षिति तिवारी ने ही दिया है। इन्हें पूरे दो अंक मिलते हैं। लखनऊ के प्रकाश गोविन्द ने दूसरे प्रश्न के आधे भाग का सही उत्तर दिया है, अतः इन्हें मिलते हैं .5 अंक। बैंगलुरु के पंकज मुकेश ने पहले प्रश्न का अधूरा उत्तर दिया है, अतः इन्हें मिलते हैं 1.5 अंक। जौनपुर के डॉ. पी.के. त्रिपाठी ने राग को तो सही पहचाना किन्तु गायक-गायिका को नहीं पहचान सके, अतः इन्हें एक अंक से ही सन्तोष करना होगा। चारो प्रतिभागियों को ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ की ओर से हार्दिक शुभकामनाएँ।

झरोखा अगले अंक का 

मित्रों, ‘स्वरगोष्ठी’ पर इन दिनों ‘राग और प्रहर’ शीर्षक से लघु श्रृंखला जारी है। श्रृंखला के आगामी अंक में हम आपके लिए दिन के चौथे प्रहर में गाये-बजाए जाने वाले कुछ आकर्षक रागों की प्रस्तुतियाँ लेकर उपस्थित होंगे। आप हमारे आगामी अंकों के लिए आठवें प्रहर तक के प्रचलित रागों और इन रागों में निबद्ध अपनी प्रिय रचनाओं की फरमाइश भी कर सकते हैं। हम आपके सुझावों और फरमाइशों को पूरा सम्मान देंगे। अगले अंक में रविवार को प्रातः 9-30 ‘स्वरगोष्ठी’ के इस मंच पर आप सब संगीत-रसिकों की हम प्रतीक्षा करेंगे।


प्रस्तुति : कृष्णमोहन मिश्र  

Sunday, 20 January 2013

स्वरगोष्ठी – 104 में आज

राग और प्रहर – 2
‘कान्हा रे मुरली काहे ना तू बजाये...’



स्वरगोष्ठी के एक नये अंक के साथ मैं कृष्णमोहन मिश्र एक बार पुनः सभी संगीत-प्रेमियों की इस बैठक में उपस्थित हूँ। पिछले अंक से हमने ‘राग और प्रहर’ शीर्षक से एक नई लघु श्रृंखला शुरू की है, जिसकी दूसरी कड़ी में आज हम प्रस्तुत कर रहे हैं, दिन के दूसरे प्रहर के कुछ राग। दूसरे प्रहर में गाये-बजाये जाने वाले इन रागों को आम तौर पर प्रातः 9 बजे से मध्याह्न 12 बजे के बीच प्रयोग किया जाता है। आज के इस अंक में हम आपके लिए प्रस्तुत करेंगे, दूसरे प्रहर के रागों में से क्रमशः गान्धारी, विलासखानी तोड़ी, गुर्जरी तोड़ी और अल्हैया बिलावल।

श्रृंखला की पिछली कड़ी में हमने आपसे यह चर्चा की थी कि संगीत के विविध रागों को समय-चक्रों और ऋतु-चक्रों में बाँटा गया है। दिन और रात के चौबीस घण्टे विभिन्न आठ प्रहरों में विभाजित किये गए हैं और रागों को भी इन्हीं आठ प्रहरों में परम्परागत रूप से विभाजित कर गाया-बजाया जाता है। राग और प्रहर के अन्तर्सम्बन्धों के विषय में हमने कुछ संगीत-साधकों से जब चर्चा की तो एक अलग आयाम सामने आया। जाने-माने इसराज और मयूरवीणा वादक पं. श्रीकुमार मिश्र ने ‘राग और प्रहर’ के अन्तर्सम्बन्धों के बारे में चर्चा करते हुए कहा- ‘रागों का सम्बन्ध समय की अपेक्षा मानव के क्रिया-कलाप और अनुभूतियों से कहीं अधिक है। प्रत्येक राग के स्वरसमूह से अलग-अलग भावों की सृष्टि होती है। ये भाव जब हमारी शारीरिक और मानसिक प्रवृत्तियों से मेल खाते हैं तो वह राग हमें उस विशेष समय पर अच्छा लगने लगता है’।

तीसरे प्रहर के रागों के अन्तर्गत आज सबसे पहले हम आपको एक लगभग अप्रचलित राग ‘गान्धारी’ सुनवाएँगे। इस राग के विषय में जानकारी देते हुए श्रीकुमार जी ने बताया कि षाडव-सम्पूर्ण जाति का यह राग आसावरी थाट के अन्तर्गत माना जाता है। आरोह में गान्धार स्वर का प्रयोग नहीं होता। इस राग का वादी स्वर धैवत और संवादी गान्धार होता है। धैवत स्वर और उत्तरांग प्रधान चलन होने से इस राग की प्रस्तुति में ओज, पुकार और जागृति का भाव उत्पन्न होता है। आरोह में जौनपुरी की छाया परिलक्षित होती है किन्तु भैरवी और कोमल आसावरी की स्वर संगतियों के प्रयोग से वह छाया तिरोहित भी हो जाती है। आज हम आपको राग ‘गान्धारी’ की तीनताल में निबद्ध एक दुर्लभ बन्दिश सुनवाते हैं, जिसे गत शताब्दी के सुप्रसिद्ध शास्त्रज्ञ प्रोफेसर बी.आर. देवधर ने प्रस्तुत किया है।


राग ‘गान्धारी’ : ‘जियरा लरजे मोरा...’ : प्रोफेसर बी.आर. देवधर



आज का दूसरा राग है ‘विलासखानी तोड़ी’। यह मान्यता है कि तानसेन के पुत्र विलास खाँ ने इस राग का सृजन किया था। तोड़ी थाट, षाड़व-सम्पूर्ण जाति के इस राग में सभी स्वर कोमल लगते हैं और आरोह में मध्यम का प्रयोग नहीं होता। इस राग का वादी धैवत और संवादी गान्धार होता है। पं. श्रीकुमार जी के अनुसार इस राग की प्रकृति पूर्वांग में गम्भीर होती है परन्तु उत्तरांग में इसका गाम्भीर्य समाप्त हो जाता है। इसकी स्थिति डूबते-उतराते मन जैसी है। इस राग को थाट का होते हुए भी तोड़ी का एक प्रकार मानते हैं, इस गुण के कारण इसे यदि तोड़ी के आंशिक चलन से युक्त भैरवी कहा जाए तो अनुपयुक्त न होगा। राग विलासखानी तोड़ी की एक आकर्षक रचना अब हम आपको सुविख्यात गायक बन्धु पण्डित राजन और साजन मिश्र के स्वरों में प्रस्तुत कर रहे हैं।

राग ‘विलासखानी तोड़ी’ : ‘कान्हा रे मुरली काहे ना बजाए...’ : पण्डित राजन और साजन मिश्र



दिन के दूसरे प्रहर में गाया-बजाया जाने वाला एक और अत्यन्त मधुर राग है, ‘अल्हैया बिलावल’। बिलावल थाट के अन्तर्गत माना जाने वाला यह एक प्राचीन राग है। षाड़व-सम्पूर्ण जाति के इस राग के आरोह में मध्यम स्वर नहीं लगाया जाता तथा अवरोह में दोनों निषाद का प्रयोग होता है। इस राग का वादी स्वर धैवत और संवादी स्वर गान्धार होता है। इस राग के स्वर-समूह से शिकवा-शिकायतों का भाव प्रभावी ढंग से उभरता है। आज के अंक में हम आपको इस राग का एक समृद्ध आलाप सुरबहार पर सुनवाते हैं। वर्तमान में सुरबहार वाद्य एक अप्रचलित वाद्य का रूप ले चुका है। सुरबहार पर राग ‘अल्हैया बिलावल’ की अवतारणा कर रहे हैं, सितार और सुरबहार के यशस्वी वादक उस्ताद इमरत खाँ। 17 नवम्बर, 1935 को कोलकाता में संगीत-समृद्ध परिवार में इमरत खाँ का जन्म हुआ था। उन्नीसवीं शताब्दी में मुगल दरबार के सुविख्यात संगीतज्ञ उस्ताद इमदाद खाँ के पौत्र, उस्ताद इनायत खाँ के पुत्र और सितार वादक उस्ताद विलायत खाँ के अनुज उस्ताद इमरत खाँ सुरबहार पर प्रस्तुत कर रहे हैं, राग ‘अल्हैया बिलावल’ का आलाप। इस आलाप में आपको ध्रुवपद अंग और इमदादखानी बाज की झलक मिलेगी।

राग ‘अल्हैया बिलावल’ : ध्रुवपद अंग में आलाप : उस्ताद इमरत खाँ



‘राग और प्रहर’ श्रृंखला की इस दूसरी कड़ी में अब हम प्रस्तुत कर रहे हैं, एक बेहद मोहक और प्रचलित राग, गूजरी तोड़ी। तोड़ी थाट और षाड़व-षाड़व जाति के इस राग में पंचम स्वर का प्रयोग नहीं किया जाता और मध्यम तीव्र प्रयोग किया जाता है। इसके अलावा ऋषभ, गान्धार और धैवत स्वर कोमल, जबकि निषाद स्वर शुद्ध लगता है। इस राग का वादी स्वर धैवत और संवादी स्वर गान्धार होता है। राग तोड़ी यूँतो पूर्वांग प्रधान होता है, किन्तु गूजरी तोड़ी उत्तरांग प्रधान राग होता है। इस राग में मानव के मन की वेदना को उभारने की क्षमता भी होती है। आइए, अब हम आपको इसी राग की एक रचना सुनवाते हैं जिसे 1991 में बनी फिल्म ‘लेकिन’ में शामिल किया गया था। तीनताल में निबद्ध इस गीत की संगीत रचना हृदयनाथ मंगेशकर ने की है और अपनी बड़ी बहन लता मंगेशकर के साथ युगल रूप में गाया भी है। स्पष्ट गूजरी तोड़ी के स्वरों में निबद्ध इस गीत का आप रसास्वादन करें और मुझे इस कड़ी को यहीं विराम देने की अनुमति दीजिए।

राग ‘गूजरी तोड़ी’ : फिल्म ‘लेकिन’ : ‘जा जा रे ऐ पथिकवा...’ : हृदयनाथ और लता मंगेशकर



आज की पहेली

‘स्वरगोष्ठी’ के इस अंक की पहेली में हम आपको एक राग आधारित फिल्मी गीत का अंश सुनवा रहे है। इसे सुन कर आपको दो प्रश्नों के उत्तर देने हैं। पहेली के 110वें अंक तक जिस प्रतिभागी के सर्वाधिक अंक होंगे, उन्हें इस श्रृंखला का विजेता घोषित किया जाएगा।


1 - संगीत के इस अंश को सुन कर पहचानिए कि यह गीत किस राग पर आधारित है?

2 - इस गीत के संगीतकार कौन हैं?

आप अपने उत्तर केवल swargoshthi@gmail.com पर ही शनिवार मध्यरात्रि तक भेजें। comments में दिये गए उत्तर मान्य नहीं होंगे। विजेता का नाम हम ‘स्वरगोष्ठी’ के 106वें अंक में प्रकाशित करेंगे। इस अंक में प्रस्तुत गीत-संगीत, राग, अथवा कलासाधक के बारे में यदि आप कोई जानकारी या अपने किसी अनुभव को हम सबके बीच बाँटना चाहते हैं तो हम आपका इस संगोष्ठी में स्वागत करते हैं। आप पृष्ठ के नीचे दिये गए comments के माध्यम से अथवा radioplaybackindia@live.com पर भी अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर सकते हैं।

पिछली पहेली के विजेता

‘स्वरगोष्ठी’ के 102वें अंक में हमने आपको 1956 में प्रदर्शित विख्यात फ़िल्मकार राज कपूर की महत्वाकांक्षी फिल्म ‘जागते रहो’ के एक गीत का अंश सुनवा कर आपसे दो प्रश्न पूछे थे। पहले प्रश्न का सही उत्तर है- राग भैरव और दूसरे प्रश्न का सही उत्तर है- संगीतकार सलिल चौधरी। दोनों प्रश्नो के सही उत्तर लखनऊ के प्रकाश गोविन्द, जबलपुर की क्षिति तिवारी, बैंगलुरु के पंकज मुकेश और जौनपुर के डॉ. पी.के. त्रिपाठी ने दिया है। चारो प्रतिभागियों को ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ की ओर से बधाई।

झरोखा अगले अंक का


मित्रों, ‘स्वरगोष्ठी’ पर इन दिनो लघु श्रृंखला ‘राग और प्रहर’ जारी है। आगामी अंक में हम आपके साथ दिन के तीसरे प्रहर अर्थात मध्याह्न 12 बजे के बाद से लेकर अपराह्न लगभग 3 बजे के मध्य प्रस्तुत किये जाने वाले रागों पर चर्चा करेंगे। प्रत्येक रविवार को प्रातः साढ़े नौ बजे हम ‘स्वरगोष्ठी’ के एक नए अंक के साथ उपस्थित होते हैं। आप सब संगीत-प्रेमियों से अनुरोध है कि इस सांगीतिक अनुष्ठान में आप भी हमारे सहभागी बनें। आपके सुझाव और सहयोग से हम इस स्तम्भ को और अधिक उपयोगी स्वरूप प्रदान कर सकते हैं।

कृष्णमोहन मिश्र


नये वर्ष में नई लघु श्रृंखला ‘राग और प्रहर’ की शुरुआत


SWARGOSHTHI – 103/ 6 जनवरी 2013



स्वरगोष्ठी – 103 में आज
राग और प्रहर – 1

'जागो मोहन प्यारे...' राग भैरव से आरम्भ दिन का पहला प्रहर 


‘स्वरगोष्ठी’ के नये वर्ष के पहले अंक में कृष्णमोहन मिश्र आप सब संगीत-प्रेमी पाठकों और श्रोताओं का हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ। आज से हम आरम्भ कर रहे हैं, एक नई लघु श्रृंखला- ‘राग और प्रहर’। भारतीय शास्त्रीय संगीत, विशेषतः उत्तर भारतीय संगीत के प्रचलित राग परम्परागत रूप से ऋतु प्रधान हैं या प्रहर प्रधान। अर्थात संगीत के प्रायः सभी राग या तो अवसर विशेष या फिर समय विशेष पर ही प्रस्तुत किये जाने की परम्परा है। इस श्रृंखला में हम आपसे राग और समय के अन्तर्सम्बन्धों पर आपसे चर्चा करेंगे।

सूर्योदय : छायाकार -नारायण द्रविड़

काल-गणना के सिद्धान्तों का प्रतिपादन करने वाले प्राचीन मनीषियों ने दिन और रात के चौबीस घण्टों को आठ प्रहर में बाँटा है। सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त तक के चार प्रहर, दिन के और सूर्यास्त से लेकर अगले सूर्योदय से पहले के चार प्रहर, रात्रि के प्रहर कहलाते हैं। उत्तर भारतीय संगीत के साधक कई शताब्दियों से विविध प्रहर में अलग-अलग रागों का परम्परागत रूप से प्रयोग करते रहे हैं। रागों का यह समय-सिद्धान्त हमारे परम्परागत संस्कारों से उपजा है। विभिन्न रागों का वर्गीकरण अलग-अलग प्रहर के अनुसार करते हुए आज भी संगीतज्ञ व्यवहार करते हैं। राग भैरव का गायन-वादन प्रातःकाल और मालकौंस मध्यरात्रि में ही किया जाता है। कुछ राग ऋतु-प्रधान माने जाते हैं और विभिन्न ऋतुओं में ही उनका गायन-वादन किया जाता है। बसन्त ऋतु में राग बसन्त और बहार तथा वर्षा ऋतु में मल्हार अंग के रागों के गाने-बजाने की परम्परा है। ऋतु-प्रधान रागों की चर्चा आपसे हम आगे किसी श्रृंखला में करेंगे, परन्तु इस श्रृंखला में हम विभिन्न प्रहरों में बाँटे गए रागों की आपसे चर्चा करेंगे।

दिन और रात के आठ प्रहरों में सबसे पहला प्रहर प्रातः सूर्योदय के सन्धिप्रकाश बेला से लेकर प्रातः नौ बजे तक का माना जाता है। इस अवधि में मानव के मन और शरीर को नई ऊर्जा के संचार की आवश्यकता होती है। रात्रि विश्राम के बाद तन और मन अलसाया हुआ होता है। ऐसे में कोमल स्वरों वाले राग स्फूर्ति और ऊर्जा का संचार करते है। इस प्रहर में भैरवी, भैरव, अहीर भैरव, आसावरी, रामकली, बसन्त मुखारी आदि रागों का गायन-वादन उपयोगी माना जाता है। इस श्रृंखला की पहली कड़ी में आज हम आपको दिन के पहले प्रहर के इन रागों में से सबसे पहले राग आसावरी सुनवाते हैं। परम्परागत रूप से सूर्योदय के बाद गाये-बजाए जाने वाले इस राग में तीन कोमल स्वर, गान्धार, धैवत और निषाद का प्रयोग किया जाता है। शेष सभी स्वर शुद्ध प्रयोग होते हैं। यह औड़व-सम्पूर्ण जाति का राग है, जिसका वादी धैवत और संवादी गान्धार स्वर होता है। अब हम आपके लिए संगीत-मार्तण्ड पण्डित ओंकारनाथ ठाकुर का गाया राग आसावरी प्रस्तुत करते हैं। तीनताल में निबद्ध इस बन्दिश में आपको पण्डित बलवन्त राव भट्ट के कण्ठ–स्वर और विदुषी एन. राजम् की वायलिन संगति का आनन्द भी मिलेगा।


राग आसावरी : ‘सजन घर लागे...’ : पण्डित ओंकारनाथ ठाकुर


सूर्योदय के बाद, अर्थात दिन के पहले प्रहर में गाया-बजाया जाने वाला एक और राग है- ‘रामकली’। भैरव थाट के इस राग में दोनों मध्यम और दोनों निषाद का प्रयोग किया जाता है। इस राग में प्रयोग किये जाने वाले कोमल स्वर हैं, ऋषभ, धैवत और निषाद। तीव्र मध्यम स्वर सन्धिप्रकाश के वातावरण की सार्थक अनुभूति कराता है। आज के अंक में हम आपके लिए पण्डित रविशंकर का सितार पर बजाया राग रामकली प्रस्तुत कर रहे हैं। पिछले दिनों भारतीय संगीत की समृद्ध परम्परा को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति दिलाने वाले इस महान कलासाधक का निधन हो गया था। पिछली शताब्दी के पूर्वार्द्ध तक भारतीय संगीत की आध्यात्मिकता और शास्त्रीयता, पाश्चात्य संगीत जगत के लिए एक जटिल प्रक्रिया थी। पण्डित जी ने आरम्भ में अपनी विदेश यात्राओं के दौरान इस विरोधाभास का अध्ययन किया और फिर अपनी कठोर साधना से अर्जित संगीत-ज्ञान को विदेशों में इस प्रकार प्रस्तुत किया कि पूरा यूरोप ‘वाह-वाह’ कर उठा। 7 अप्रेल, 1920 को तत्कालीन बनारस (अब वाराणसी) के बंगाली टोला नामक मुहल्ले में एक संगीत-प्रेमी परिवार में जन्मे रवीन्द्रशंकर चौधरी (बचपन में रखा गया पूरा नाम) का गत मास निधन हो गया था। इस महान कलासाधक को विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए आपको उन्हीं का बजाया राग रामकली सुनवा रहे हैं।


राग रामकली : मध्य व द्रुत लय की दो रचनाएँ : पण्डित रविशंकर


प्रथम प्रहर के अन्तिम चरण में प्रयोग किया जाने वाला एक बहुत ही मोहक किन्तु आजकल कम प्रचलित राग है- ‘बसन्त मुखारी’ है। आमतौर पर संगीत-साधक इस राग का प्रयोग प्रथम प्रहर की समाप्ति से कुछ समय पूर्व करते हैं। कभी-कभी दूसरे प्रहर के आरम्भ में भी इस राग का प्रयोग किया जाता है। भैरव थाट और सम्पूर्ण जाति के इस राग में ऋषभ, धैवत और निषाद स्वर कोमल प्रयोग किये जाते हैं। राग बसन्त मुखारी के पूर्वांग में भैरव और उत्तरांग में भैरवी परिलक्षित होता है। इस राग का वादी स्वर मध्यम और संवादी स्वर षडज होता है। आज हम आपको राग बसन्त मुखारी राग में निबद्ध भक्ति और श्रृंगार रस से मिश्रित एक रचना सुनवाते हैं। इस रचना को सुविख्यात संगीतज्ञ पण्डित जसराज ने स्वर दिया है, जिसके बोल हैं- ‘जल जमुना भरने निकसी गोरी...’।


राग बसन्त मुखारी : ‘जल जमुना भरने निकसी गोरी...’ : पण्डित जसराज



आज हमारी चर्चा में प्रथम प्रहर के राग हैं। विद्वानों का मत है कि सन्धिप्रकाश, अर्थात सूर्योदय की लालिमा आकाश में नज़र आने से लेकर सूर्योदय के बाद तक इस प्रहर के प्रमुख राग 'भैरव' का गायन-वादन मुग्धकारी होता है। इस राग में ऋषभ और धैवत स्वर कोमल और शेष स्वर शुद्ध प्रयोग होते हैं। इस राग का वादी स्वर धैवत और संवादी स्वर ऋषभ होता है। राग ‘भैरव’ पर आधारित फिल्म-गीतों में से एक अत्यन्त मनमोहक गीत आज हमने चुना है। 1956 में विख्यात फ़िल्मकार राज कपूर ने महत्वाकांक्षी फिल्म ‘जागते रहो’ का निर्माण किया था। इस फिल्म के संगीतकार सलिल चौधरी का चुनाव स्वयं राज कपूर ने ही किया था, जबकि उस समय तक शंकर-जयकिशन उनकी फिल्मों के स्थायी संगीतकार हो चुके थे। फिल्म ‘जागते रहो’ बांग्ला फिल्म ‘एक दिन रात्रे’ का हिन्दी संस्करण था और बांग्ला संस्करण के संगीतकार सलिल चौधरी को ही हिन्दी संस्करण के संगीत निर्देशन का दायित्व दिया गया था। सलिल चौधरी ने इस फिल्म के गीतों में पर्याप्त विविधता रखी। इस फिल्म में उन्होने एक गीत ‘जागो मोहन प्यारे, जागो...’ की संगीत रचना ‘भैरव’ राग के स्वरों पर आधारित की थी। शैलेन्द्र के लिखे गीत जब लता मंगेशकर के स्वरों में ढले, तब यह गीत हिन्दी फिल्म संगीत का मीलस्तम्भ बन गया। आइए, आज हम राग ‘भैरव’ पर आधारित, फिल्म ‘जागते रहो’ का यह गीत सुनते हैं। आप इस गीत का रसास्वादन करें और हमें ‘राग और प्रहर’ श्रृंखला की पहली कड़ी को यहीं विराम देने की अनुमति दीजिए।


राग भैरव : फिल्म जागते रहो : ‘जागो मोहन प्यारे...’ : लता मंगेशकर





आज की पहेली

‘स्वरगोष्ठी’ के 103वीं संगीत पहेली में हम आपको एक राग आधारित फिल्मी गीत का अंश सुनवा रहे है। इसे सुन कर आपको दो प्रश्नों के उत्तर देने हैं। ‘स्वरगोष्ठी’ के 110वें अंक तक जिस प्रतिभागी के सर्वाधिक अंक होंगे, उन्हें इस श्रृंखला का विजेता घोषित किया जाएगा।



1- संगीत के इस अंश को सुन कर पहचानिए कि यह गीत किस राग पर आधारित है?

2- इस गीत के गायक-गायिका कौन हैं?

आप अपने उत्तर केवल swargoshthi@gmail.com पर ही शनिवार मध्यरात्रि तक भेजें। comments में दिये गए उत्तर मान्य नहीं होंगे। विजेता का नाम हम ‘स्वरगोष्ठी’ के 105वें अंक में प्रकाशित करेंगे। इस अंक में प्रस्तुत गीत-संगीत, राग, अथवा कलासाधक के बारे में यदि आप कोई जानकारी या अपने किसी अनुभव को हम सबके बीच बाँटना चाहते हैं तो हम आपका इस संगोष्ठी में स्वागत करते हैं। आप पृष्ठ के नीचे दिये गए comments के माध्यम से अथवा radioplaybackindia@live.com पर भी अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर सकते हैं।


पिछली पहेली के विजेता

‘स्वरगोष्ठी’ के 101वें अंक में हमने आपको सुप्रसिद्ध गायिका लता मंगेशकर के स्वरों में राग केदार पर आधारित फिल्म ‘मुगल-ए-आज़म’ के एक गीत का अंश सुनवा कर आपसे दो प्रश्न पूछे थे। पहले प्रश्न का सही उत्तर है- राग केदार और दूसरे प्रश्न का सही उत्तर है- गायिका लता मंगेशकर। दोनों प्रश्नो के सही उत्तर लखनऊ के प्रकाश गोविन्द, जबलपुर की क्षिति तिवारी और जौनपुर के डॉ. पी.के. त्रिपाठी ने दिया है। तीनों प्रतिभागियों को ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ की ओर से बधाई।


झरोखा अगले अंक का

मित्रों, ‘स्वरगोष्ठी’ के इस अंक से हमने ‘राग और प्रहर’ शीर्षक से यह नवीन श्रृंखला आरम्भ की है। अगले अंक में हम दिन के दूसरे प्रहर के कुछ रागों पर चर्चा करेंगे। दिन के इस दूसरे प्रहर की अवधि प्रातः 9 से मध्याह्न 12 बजे के बीच माना जाता है। आप दूसरे से लेकर आठवें प्रहर के प्रचलित रागों और इन रागों में निबद्ध रचनाओं के बारे में अपनी फरमाइश भी कर सकते हैं। हम आपके सुझावों और फरमाइशों को पूरा सम्मान देंगे। अगले अंक में रविवार को प्रातः ९-३० बजे ‘स्वरगोष्ठी’ के इस मंच पर आप सब संगीत-रसिकों की हम प्रतीक्षा करेंगे।


कृष्णमोहन मिश्र 



Tuesday, 1 January 2013

प्रसारण तिथि 03/01/2013  



भारतीय सिनेमा के सौ साल – 30

मैंने देखी पहली फ़िल्म : कृष्णमोहन मिश्र

बैंड वाले मेरे पसन्द के गीत की धुन नहीं बजाते थे


भारतीय सिनेमा के शताब्दी वर्ष में ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ द्वारा आयोजित विशेष अनुष्ठान- ‘स्मृतियों के झरोखे से’ में आप सभी सिनेमा प्रेमियों का मैं सजीव सारथी नए वर्ष 2013 में हार्दिक स्वागत करता हूँ। गत जून मास के दूसरे गुरुवार से हमने आपके संस्मरणों पर आधारित प्रतियोगिता ‘मैंने देखी पहली फिल्म’ का आयोजन किया था। इस स्तम्भ में हमने आपके प्रतियोगी संस्मरण और रेडियो प्लेबैक इण्डिया के संचालक मण्डल के सदस्यों के गैर-प्रतियोगी संस्मरण प्रस्तुत किये हैं। आज के इस समापन अंक में हम ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ संचालक मण्डल के सदस्य कृष्णमोहन मिश्र का गैर-प्रतियोगी संस्मरण प्रस्तुत कर रहे हैं। कृष्णमोहन जी ने 1955 में मोतीलाल और निगार सुल्ताना अभिनीत फिल्म ‘मस्ताना’ देखी थी। इस फिल्म के गीतकार राजेन्द्र कृष्ण और संगीतकार मदनमोहन थे। इस संस्मरण के साथ-साथ हम आपके प्रतियोगी संस्मरणों के परिणामों की घोषणा भी करेंगे।


म्र के पहले दशक की किसी घटना या प्रसंग को आधी शताब्दी से भी अधिक समय बाद तक स्मृतियों में सुरक्षित रख पाना उतना कठिन नहीं, जितना पाँच-छः दशक बाद उन स्मृतियों को शब्दों में बाँधना। इस कार्य में हमारी कठिनाई इसलिए बढ़ जाती है कि हम बचपन की घटना को वयस्क मानसिकता से देखने लगते हैं। इस आलेख को तैयार करते समय मैं इसी कठिनाई से गुज़रा हूँ। दरअसल सात वर्ष की आयु में अपनी देखी हुई पहली फिल्म के कई प्रसंग और तत्कालीन परिवेश आज 64 वर्ष की आयु में भी मेरी स्मृतियों में काफी हद तक सुरक्षित है। वह फिल्म है- 1954 में प्रदर्शित ‘मस्ताना’, जिसमें मोतीलाल और निगार सुल्ताना की मुख्य भूमिकाएँ थी। यह फिल्म मैंने अपनी माँ, अपने छोटे भाई, मामा (अब तीनों स्वर्गीय) और मामी के साथ बनारस (अब वाराणसी) के कन्हैया चित्र मन्दिर नामक सिनेमाघर में देखी थी। अब तो नगर का सबसे खूबसूरत सिनेमाघर ही नहीं रहा। उसके स्थान पर व्यावसायिक केन्द्र बन चुका है। वह 1954 का दिसम्बर या 1955 का जनवरी मास के कड़ाके की ठण्डक वाला कोई दिन रहा होगा, क्योकि माँ ने गरम कपड़ों से मुझे पूरी तरह से ढक रखा था। वास्तव में यह मेरी देखी पहली फिल्म नहीं थी। माँ के अनुसार इससे पहले मैं हर हर महादेव, आनन्दमठ, आन, परिणीता आदि फिल्में माँ और मामा-मामी के साथ देख चुका था, किन्तु इनमें से किसी भी फिल्म का कोई प्रसंग मुझे याद नहीं रहा। हाँ, फिल्म ‘परिणीता’ के एक गीत- ‘चली राधे रानी अँखियों में पानी...’ की धुन (शब्द नहीं) लम्बे समय तक स्मृतियों में सुरक्षित रही। दरअसल मेरी माँ के अनुसार बचपन से ही मुझमें सबसे बड़ा गुण और पिताजी के अनुसार सबसे बड़ा दुर्गुण यह था की कोई गीत एक बार सुन लेने पर धुन तो लम्बे समय तक याद रहती थी किन्तु शब्द भूल जाता था। अपने इस गुण या दुर्गुण के कारण प्रायः मेरी स्थिति तब हास्यास्पद हो जाती थी, जब भूले हुए शब्दों के स्थान पर जोड़-तोड़ कर, अटपटे शब्दों को ठूँस कर गीत को पूर्ण कर देता था और गलियों में, घाट (गंगा के तट) पर और खेल के दौरान ज़ोर-ज़ोर से गाया करता था।

मैं जिस दौर की बात कर रहा हूँ, वह देश के स्वतंत्र होने के बाद का पहला दशक था। मेरे पिताजी स्वयं स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी थे और प्रभात-फेरियों में हमेशा मुझे अपने साथ ले जाते थे। परन्तु फिल्म देखना या फिल्मी गीत गुनगुनाना उन्हें बिलकुल पसन्द नहीं था। हाँ, फिल्मों के शौकीन मेरे मामा के आगे उनकी एक न चलती। उन दिनों असम में मेरे नाना का व्यवसाय हुआ करता था। साल में एक या दो बार छुट्टियाँ बिताने मामा-मामी बनारस आया करते थे और उनके आते ही मेरी माँ को फिल्में देखने की आज्ञा सहज ही मिल जाती थी। बचपन से लेकर किशोरावस्था तक मैंने जितनी भी फिल्में देखी वह सब मामा-मामी के सौजन्य से ही। सात वर्ष की आयु में जब मैंने फिल्म ‘मस्ताना’ देखी थी तब फिल्म संगीत सुनने के साधन बड़े सीमित थे। उन दिनों फिल्म संगीत का आनन्द लेने के लिए सर्वसुलभ साधन सिनेमाघर ही हुआ करता था। उच्च वर्ग के संगीत-प्रेमी परिवारों में ग्रामोफोन हुआ करता था, जिस पर 78RPM के रेकार्ड सुने जाते थे। मध्यम वर्ग के परिवार में रेडियो बड़ी मुश्किल से नज़र आता था। उन दिनों रेडियो के किसी भी भारतीय केन्द्र से फिल्मी गीतों का प्रसारण नहीं होता था। फिल्मी गीतों का प्रसारण केवल रेडियो सीलोन से ही होता था, जिसका सबसे लोकप्रिय साप्ताहिक कार्यक्रम हुआ करता था, ‘बिनाका गीतमाला’। मेरी स्मृतियों में मेरी देखी पहली फिल्म ‘मस्ताना’ का एक गीत भी 1955 के ‘बिनाका गीतमाला’ वार्षिक हिट गीतों में शामिल हुआ था। फिल्म ‘मस्ताना’ का यह गीत उन दिनों अत्यन्त लोकप्रिय हुआ था। तब फिल्मी गीतों की लोकप्रियता मापने का एक साधन यह भी था कि बारातों में बजने वाले बैंड पर उस गीत की धुन बजती है या नहीं। फिल्म देखने के बाद मेरे घर के सामने से जितनी भी बारातें गुजरती मेरे उत्सुकता यही होती थी कि मेरी देखी फिल्म ‘मस्ताना’ के गीत की धुन बजाई जा रही है या नहीं। इस फिल्म में मोहम्मद रफी का गाया और मदनमोहन का स्वरबद्ध किया गीत ‘मत भूल अरे इंसान...’ मेरा सर्वप्रिय गीत था। परन्तु बैंड वाले इस गीत के बजाय फिल्म का एक दूसरा गीत ‘झूम झूम के दो दीवाने गाते जाएँ गली गली...’ की धुन ही बजाते थे। बैंड वालों का यह अन्याय प्रायः मुझे झेलना पड़ता था। फिल्म ‘मस्ताना’ के मेरे सर्वप्रिय गीत को आप भी सुनिए। यह गीत 1955 के ‘बिनाका गीतमाला’ की वार्षिक हिट गीतों में शामिल था। हम आपको गीत का वही रेडियो संस्करण सुनवा रहे हैं।


फिल्म - मस्ताना : ‘मत भूल अरे इंसान...’ : मोहम्मद रफी : संगीत – मदनमोहन


बचपन में देखी हुई फिल्म ‘मस्ताना’ को मैं दोबारा कभी देख नहीं पाया। शायद यह फिल्म इतनी हिट न रही हो कि दोबारा इसे प्रदर्शित किया जा सके। परन्तु मेरे लिए तो ‘मस्ताना’ तब खुशियों का खजाना थी। इस गीत का दृश्य आज भी स्मृतियों में सुरक्षित है। एक माँ अपने नवजात शिशु को मन्दिर की सीढ़ियों पर छोड़ कर चली जाती है। मन्दिर में एक साधु यह गीत गा रहे हैं। बाद में इस शिशु का पालन-पोषण झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाले फिल्म के अविवाहित नायक (मोतीलाल) द्वारा की जाती है। बड़ा होकर यह बालक (मास्टर रोमी) सारी बस्ती का दुलारा बन जाता है। रोते हुए इस अनाथ बच्चे को पुचकारने, दुलराने और चुप कराने के प्रयास में हास्य अभिनेता गोप और सुन्दर के अनेक हास्य प्रसंग मेरी स्मृति में आज भी सुरक्षित हैं। इन अभिनेताओ के नाम तो तब नहीं जानता था, परन्तु साथियों को फिल्म की कथा बताते समय मोटू (गोप) और ठिंगनू (सुन्दर) नामों का प्रयोग किया करता था। फिल्म में कई बालसुलभ प्रसंग और गीत भी थे। परन्तु यह प्रसंग और गीत मेरी स्मृतियों में बहुत स्पष्ट नहीं हैं। हाँ, एक गीत कुछ ऐसा था, जिसमें सभी पात्र चीनी या जापानी बने नाच रहे थे, वह कुछ-कुछ याद है। यह भी सम्भव है कि इस प्रकार के बालसुलभ प्रसंग उन दिनों पसन्द आए हों और याद भी रहे हों, किन्तु जैसे-जैसे आयु बढ़ी होगी वयस्क मानसिकता ने उन्हें बचकाना मान कर त्याग दिया हो। बहरहाल, फिल्म का वह प्रसंग एकदम स्पष्ट है, जब बड़ा होकर मुन्ना (मास्टर रोमी) आगे-आगे धनिकों के मुहल्ले में खिड़कियों के शीशे पत्थर मार कर तोड़ते हुए गुजरता था और उसके पीछे-पीछे नायक (मोतीलाल) पीठ पर शीशे का थैला लटकाए, ‘टूटे-फूटे शीशे बदलवा लो...’ की आवाज़ लगाते हुए आता था। इस दृश्य का अभिनय मैं अनेकानेक बार अपने बालसखाओं के साथ किया करता था। अपने साथियों को यह दृश्य मैं ही समझाता था और जाहिर है कि नायक की भूमिका मेरे अलावा और कौन करता। अब हम आपको फिल्म ‘मस्ताना’ का वह गीत सुनवाते हैं जिसकी धुन उन दिनों बैंड पर बेहद लोकप्रिय थी। यह एक युगल गीत है जिसे मोहम्मद रफी और लक्ष्मी शंकर ने गाया है।

फिल्म - मस्ताना : ‘झूम झूम के दो दीवाने...’ : मोहम्मद रफी और लक्ष्मी शंकर : संगीत – मदनमोहन


इस गीत ने उस आयु में मुझे एक अमूल्य ज्ञान यह भी दिया कि बम्बई की गलियाँ भी हमारे बनारस की सड़कों से भी अधिक चौड़ी होती हैं। अपने इस ज्ञान का उल्लेख मैंने काफी समय तक अपने साथियों से किया था। फिल्म के गीत ‘झूम झूम के दो दीवाने गाते जाएँ गली गली...’ की शूटिंग तत्कालीन बम्बई के किसी सूनसान सड़क पर की गई थी और गीत में शब्द आया है- ‘गली गली’। यह प्रसंग मेरे लिए आश्चर्यजनक इसलिए था कि मेरा जन्म गलियों के लिए विख्यात बनारस के गंगातट पर स्थित गलियों वाले मुहल्ले में हुआ था और फिल्म में जिस चौड़ी सड़क को गली कहा गया था, उस उम्र तक मैंने उतनी चौड़ी सड़क देखी नहीं थी। बहरहाल आइए, अब हम आपको ‘मस्ताना’ का वह गीत सुनवाते है जिसके शब्द मैं बिलकुल भूल चुका था किन्तु इसकी धुन आज भी मेरी स्मृतियों के किसी कोने में दबी पड़ी थी। फिल्म के गीतों की खोज करते समय जब यह गीत मेरे हाथ लगा तो मेरी खुशी का ठिकाना नहीं था। दरअसल इसी गीत को सुन कर मैंने बचपन में मुख से सीटी बजाना सीखा था। मोहम्मद रफी के गाये इस गीत- ‘दुनिया के सारे गमों से बेगाना...’ को आप भी सुनिए।

फिल्म - मस्ताना : ‘दुनिया के सारे गमों से बेगाना...’ : मोहम्मद रफी : संगीत – मदनमोहन



आपको कृष्णमोहन जी का यह गैर-प्रतियोगी संस्मरण कैसा लगा, हमें अवश्य लिखिएगा। आप अपनी प्रतिक्रिया radioplaybackindia@live.com पर भेज सकते हैं। ‘मैंने देखी पहली फिल्म’ प्रतियोगिता का यह समापन गैर-प्रतियोगी संस्मरण था। आप अपने सुझाव, संस्मरण और फरमाइश हमें अवश्य भेजें।


‘मैंने देखी पहली फिल्म’ प्रतियोगिता के विजेता 

दोस्तों, भारतीय सिनेमा के शताब्दी वर्ष में ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ द्वारा ‘मैंने देखी पहली फिल्म’ के अन्तर्गत आपके संस्मरणों पर आधारित प्रतियोगिता का आयोजन किया था। विगत जून माह से आरम्भ किये गए इस स्तम्भ में हमने 11 प्रतियोगी और 6 गैर-प्रतियोगी संस्मरण प्रस्तुत किये। इस प्रतियोगिता के मुख्य निर्णायक का दायित्व हमने मुम्बई में कार्यरत वरिष्ठ फिल्म पत्रकार और स्तम्भ लेखक श्री शिशिर कृष्ण शर्मा को सौंपा था। आपने 30 अगस्त, 2012 को प्रकाशित ‘मैंने देखी पहली फिल्म’ स्तम्भ में शिशिर जी का ही गैर-प्रतियोगी संस्मरण पढ़ा था। आपके आलेखों का गहन अध्ययन कर उन्होने अपना निर्णय हमें भेज दिया है। शिशिर जी के प्रति आभार प्रकट करते हुए हम विजेताओं की घोषणा कर रहे हैं।

‘मैंने देखी पहली फिल्म’ प्रतियोगिता में औसत 84 अंक अर्जित कर प्रथम स्थान प्राप्त किया है, लखनऊ की श्रीमती सुमन दीक्षित ने। गुड़गाँव, हरियाणा की सुश्री सीमा गुप्ता ने औसत 81 अंक के साथ दूसरा स्थान प्राप्त किया है। तीसरे स्थान पर बैंगलुरु की श्रीमती अंजू पंकज रहीं। इनका औसत प्राप्तांक 77 है। इनके अलावा संचालक मण्डल और निर्णायक मण्डल द्वारा सुश्री रंजना भाटिया, श्री सतीश पाण्डेय और श्री प्रेमचन्द्र सहजवाला के आलेखों की विशेष सराहना की गई। साथ ही सुश्री सुनीता शानू, श्री पंकज मुकेश, श्री मनीष कुमार, श्री निखिल आनन्द गिरि और श्री मिकी गोथवाल की सहभागिता का भी सम्मान करते हैं। उपरोक्त तीनों विजेताओं को ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ की ओर से हार्दिक बधाई।

तीनों विजेताओं से अनुरोध है कि आप अपना डाक का पूरा पता हमें radioplaybackindia@live.com पर शीघ्र मेल कर दें। आपका पुरस्कार हम आपके भेजे पते पर डाक द्वारा भेजेंगे।

प्रस्तुति : सजीव सारथी