Sunday 25 December 2011

संगीत के सौ रंग बिखेरती पण्डित रामनारायण की सारंगी

दिसम्बर 25, 2011
सुर संगम में आज

संगीत के सौ रंग बिखेरती पण्डित रामनारायण की सारंगी

गज-तंत्र वाद्यों में वर्तमान भारतीय वाद्य सारंगी, सर्वाधिक प्राचीन है। शास्त्रीय मंचों पर प्रचलित सारंगी, विविध रूपों और विविध नामों से लोक संगीत से भी जुड़ी है। प्राचीन ग्रन्थों में यह उल्लेख मिलता है कि लंका के राजा रावण का यह सर्वप्रिय वाद्य था। ऐसी मान्यता है कि रावण ने ही इस वाद्य का आविष्कार किया था। इसी कारण इसका एक प्राचीन नाम रावण हत्था का उल्लेख भी मिलता है। आज के अंक में हम सारंगी और इस वाद्य के अप्रतिम वादक पण्डित रामनारायण के व्यक्तित्व और कृतित्व पर चर्चा करेंगे।

सुर संगम- 49 : पण्डित रामनारायन की संगीत-साधना

सुसंगम के ४९वें अंक में, मैं कृष्णमोहन मिश्र, समस्त संगीत-प्रेमियों का हार्दिक स्वागत करता हूँ। आज २५ दिसम्बर है और आज का दिन कई कारणों से विशेष महत्त्वपूर्ण है। भारतीय संगीत जगत के लिए आज का दिन इसलिए उल्लेखनीय है कि आज के दिन ही वर्ष १९२७ में उदयपुर, राजस्थान के एक सांगीतिक परिवार में एक ऐसे प्रतिभावान बालक का जन्म हुआ, जिसे आज हम सब विख्यात सारंगी वादक पण्डित रामनारायण के रूप में जानते हैं। भारतीय संगीत जगत में इस महान संगीतज्ञ का योगदान कभी भी भुलाया नहीं जा सकता। आज के अंक में हम उनके इस योगदान पर चर्चा करेंगे।
सारंगी एक ऐसा वाद्य है जो मानव कण्ठ के सर्वाधिक निकट है। एक कुशल सारंगी वादक गले की शत-प्रतिशत विशेषताओं को अपने वाद्य पर बजा सकता है। सम्भवतः इसीलिए इस वाद्य को सौ-रंगी अर्थात सारंगी कहा गया। फरवरी, १९९४ में मुझे पंडित रामनारायण जी से एक लम्बे साक्षात्कार का सुअवसर मिला था। उस बातचीत के कुछ अंश हम आपके लिए इस अंक में भी प्रस्तुत करेंगे, किन्तु उससे पहले आपको सुनवाते हैं, पण्डित रामनारायण का बजाया उनका सर्वप्रिय राग मारवा में मनमोहक आलाप।
 
सारंगी वादन : पण्डित रामनारायण : राग – मारवा : आलाप
http://www.youtube.com/watch?v=v6uCTP1nWBo

पण्डित राम नारायण के प्रपितामह दानजी वियावत उदयपुर महाराणा के दरबारी गायक थे। पितामह हरिलाल वियावत भी उच्चकोटि के गायक थे, जबकि पिता नाथूजी वियावत ने दिलरुबा वाद्य को अपनाया। छः वर्ष की आयु में रामनारायण जी के हाथ एक सारंगी लगी और इसी वाद्य पर पिता की देख-रेख में अभ्यास आरम्भ हो गया। १० वर्ष की आयु में उन्होने उस्ताद अल्लाबंदे और उस्ताद जाकिरुद्दीन डागर से ध्रुवपद की शिक्षा ग्रहण की। इसके साथ ही जयपुर के सुविख्यात सारंगी वादक उस्ताद महबूब खाँ से भी मार्गदर्शन प्राप्त किया। १९४४ में रामनारायण जी की नियुक्ति सारंगी संगतिकार के रूप रेडियो लाहौर में हुई, जहाँ तत्कालीन जाने-माने गायक-वादकों के साथ उन्होने सारंगी की संगति कर कम आयु में ही ख्याति अर्जित की। १९४७ में देश विभाजन के समय उन्हें लाहौर से दिल्ली केन्द्र पर स्थानान्तरित किया गया। अब तक रामनारायण के सारंगी वादन में इतनी परिपक्वता आ गई कि तत्कालीन सारंगी वादकों में उनकी एक अलग शैली के रूप में पहचानी जाने लगी। इसके बावजूद उनका मन इस बात से हमेशा खिन्न रहा करता था कि संगीत के मंच पर संगतिकारों को वह दर्जा नहीं मिलता था, जिसके वो अधिकारी थे। मुख्य गायक कलाकारों के साथ, इसी बात पर प्रायः नोक-झोंक हो जाती थी। उनका मानना था कि संगतिकारों को भी प्रदर्शन के दौरान अपनी बात कहने का अवसर मिलना चाहिए। आइए यहाँ थोड़ा रुक कर पण्डित रामनारायण जी का सारंगी पर बजाया राग दरबारी में एक मनमोहक गत।
         
सारंगी वादन : पण्डित रामनारायण : राग – दरबारी : गत

सारंगी वादन की अपनी एक अलग शैली विकसित करते हुए पण्डित रामनारायण का मन स्वतंत्र सारंगी वादन के लिए बेचैन होने लगा। रेडियो की नौकरी में रहते हुए उनकी यह इच्छा पूरी नहीं हो पा रही थी, अतः १९४९ में उन्होने रेडियो की नौकरी छोड़ कर मुम्बई (तत्कालीन बम्बई) पहुँच गये। मुम्बई में स्वयं को स्थापित करने की लालसा ने उन्हें फिल्म-जगत में पहुँचा दिया। उस दौर के फिल्म संगीतकारों ने पण्डित रामनारायण को सर-आँखों पर बिठाया। सारंगी के सुरों से सजी उनकी कुछ प्रमुख फिल्में हैं- हमदर्द १९५३, अदालत १९५८, मुगल-ए-आजम १९६०, गंगा जमुना १९६१, कश्मीर की कली १९६४, मिलन और नूरजहाँ १९६७। संगीतकार ओ.पी. नैयर के तो वे सर्वप्रिय रहे। हमदर्द, अदालत, गंगा जमुना और मिलन फिल्म में तो उन्होने कई गीतों की धुनें भी बनाई। यहाँ हम आपको उनकी फिल्मों के दो गीत सुनवाएँगे। पहला गीत १९५३ की फिल्म हमदर्द से लिया गया है, इस गीत के दो अन्तरे हैं। पहला अन्तरा राग जोगिया और दूसरा राग बहार के सुरों में निबद्ध है। दूसरा गीत हमने ओ.पी. नैयर की संगीतबद्ध फिल्म कश्मीर की कली से लिया है। इस गीत के आरम्भिक संगीत और अन्तराल संगीत में रामनारायण जी की सारंगी प्रमुख रूप से बजी है। आइए सुनते हैं, दोनों गीत-

फिल्म – हमदर्द : पी बिन सब सूना... : संगीत – अनिल विश्वास 

फिल्म – कश्मीर की कली : दीवाना हुआ बादल.. : संगीत – ओ.पी. नैयर

१९५६ में पण्डित रामनारायण ने मुम्बई के एक संगीत समारोह में एकल सारंगी वादन किया। संगीत-प्रेमियों के लिए यह एक दुर्लभ क्षण था। किसी शास्त्रीय मंच पर पहली बार सदियों से उपेक्षित सारंगी को सम्मान प्राप्त हुआ था। संगीत के सुनहरे पृष्ठों पर पण्डित रामनारायन का नाम सारंगी को प्रतिष्ठित करने में दर्ज़ हो चुका था।

कृष्णमोहन मिश्र




अब समय आ चला है आज के 'सुर-संगम' के अंक को यहीं पर विराम देने का। आशा है आपको यह प्रस्तुति पसन्द आई होगी। हमें बताइये कि किस प्रकार हम इस स्तम्भ को और रोचक बना सकते हैं! आप अपने विचार व सुझाव हमें लिख भेजिए admin@radioplaybackindia.com के ई-मेल पते पर।



क्या आपको शास्त्रीय, उपशास्त्रीय, लोक और फिल्म संगीत से अनुराग है? यदि हाँ, तो प्रतिदिन अपडेट होने वाले पृष्ठों के साथ हमसे यहाँ http://radioplaybackindia.com/  मिलें।

Friday 23 December 2011

स्वर-सम्राट उस्ताद अब्दुल करीम खाँ : जिनका कुत्ता भी सुरीला था



दिसम्बर 18, 2011
सुर संगम में आज - स्वर-सम्राट उस्ताद अब्दुल करीम खाँ : जिनका कुत्ता भी सुरीला था

 
उस्ताद अब्दुल करीम खाँ सम्पूर्ण भारतीय संगीत का प्रतिनिधित्व करते थे। वे उत्तर और दक्षिण भारतीय संगीत के बीच एक सेतु थे। दक्षिण के कर्नाटक संगीत के कई रागों को उत्तर भारतीय संगीत में शामिल किया और सरगम के विशिष्ट अन्दाज को उत्तर भारत में प्रचलित किया। उनकी कल्पना विस्तृत और अनूठी थी, जिसके बल पर उन्होने भारतीय संगीत को एक नया आयाम और क्षितिज प्रदान किया।


 सुर संगम- 48 : उस्ताद अब्दुल करीम खाँ की संगीत-साधना
‘सुर संगम’ के एक नए अंक में, मैं कृष्णमोहन मिश्र, समस्त संगीत-प्रेमियों का ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के मंच पर हार्दिक स्वागत करता हूँ। आज के अंक में हम एक ऐसे संगीत-साधक के कृतित्व पर चर्चा करेंगे जो उत्तर और दक्षिण भारतीय संगीत के बीच एक सेतु थे। किराना घराने के इस महान कलासाधक का नाम है- उस्ताद अब्दुल करीम खाँ। इस महान संगीतज्ञ का जन्म उत्तर प्रदेश के वर्तमान मुजफ्फरनगर जिले में स्थित कैराना नामक कस्बे में वर्ष १८८४ में हुआ था। आज जिसे हम संगीत के किराना घराने के नाम से जानते हैं वह इसी कस्बे के नाम पर पड़ा था। एक संगीतकार परिवार में जन्में अब्दुल करीम खाँ के पिता का नाम काले खाँ था। खाँ साहब के तीन भाई क्रमशः अब्दुल लतीफ़ खाँ, अब्दुल मजीद खाँ और अब्दुल हक़ खाँ थे। सुप्रसिद्ध गायिका रोशन आरा बेग़म सबसे छोटे भाई अब्दुल हक़ की सुपुत्री थीं। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद रोशन आरा बेग़म का गायन लखनऊ रेडियो के माध्यम से अत्यन्त लोकप्रिय था।
जन्म से ही सुरीले कण्ठ के धनी अब्दुल करीम खाँ की सीखने की रफ्तार इतनी तेज थी कि मात्र छः वर्ष की आयु में ही संगीत-सभाओं में गाने लगे थे। उनकी प्रतिभा इतनी विलक्षण थी कि पन्द्रह वर्ष की आयु में बड़ौदा दरबार में गायक के रूप में नियुक्त हो गए थे। वहाँ वे १८९९ से १९०२ तक रहे और उसके बाद मिरज चले गए। आइए, यहाँ थोड़ा रुक कर उस्ताद अब्दुल करीम खाँ के स्वरों में राग बसन्त में निबद्ध दो खयाल सुनते हैं। विलम्बित एकताल के खयाल के बोल हैं- ‘अब मैंने देखे...’ तथा द्रुत तीनताल की बन्दिश के बोल हैं- ‘फगुआ ब्रज देखन को चलो री...’

उस्ताद अब्दुल करीम खाँ : राग – बसन्त : खयाल – विलम्बित एकताल और द्रुत तीनताल
http://www.youtube.com/watch?v=M2o4LwjW_Pg

खाँ साहब के स्वरों में जैसी मधुरता, जैसा विस्तार और जैसी शुद्धता थी वैसी अन्य किसी गायक को नसीब नहीं हुई। वे विलम्बित खयाल में लयकारी और बोल तान की अपेक्षा आलाप पर अधिक ध्यान रखते थे। उनके गायन में वीणा की मींड़, सारंगी के कण और गमक का मधुर स्पर्श होता था। रचना के स्थायी और एक अन्तरे में ही खयाल गायन के सभी गुणो का प्रदर्शन कर देते थे। अपने गायन की प्रस्तुति के समय वे अपने तानपूरे में पंचम के स्थान पर निषाद स्वर में मिला कर गायन करते थे। वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। उत्कृष्ट खयाल गायकी के साथ ठुमरी, दादरा, भजन और मराठी नाट्य संगीत-गायन में भी दक्ष थे। वर्ष १९२५-२६ में उनकी गायी राग झिंझोटी की ठुमरी- ‘पिया बिन नाहीं आवत चैन....’ अत्यन्त लोकप्रिय हुई थी। लगभग दस वर्षों के बाद १९३६ में प्रथमेश चन्द्र बरुआ के निर्देशन में शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय के उपन्यास- "देवदास" पर इसी नाम से फिल्म का निर्माण हुआ था। फिल्म के संगीत निर्देशक तिमिर वरन ने उस्ताद अब्दुल करीम खाँ की गायी इसी ठुमरी को फिल्म में शामिल किया था, जिसे कुन्दनलाल सहगल ने स्वर दिया था। सहगल के स्वरों में इस ठुमरी को सुन कर खाँ साहब बड़े प्रसन्न हुए थे और उन्हें बधाई भी दी थी। आइए, आज हम आपको खाँ साहब के स्वरों में वही लोकप्रिय ठुमरी सुनवाते हैं-

उस्ताद अब्दुल करीम खाँ : ठुमरी – राग झिंझोटी : ‘पिया बिन नाहीं आवत चैन...’

उस्ताद अब्दुल करीम खाँ जैसे संगीतज्ञ सदियों में जन्म लेते हैं। अनेक प्राचीन संगीतज्ञों के बारे कहा जाता है कि उनके संगीत से पशु-पक्षी खिंचे चले आते थे। खाँ साहब के साथ भी ऐसी ही एक सत्य घटना जुड़ी हुई है। उनका एक कुत्ता था, जो अपने स्वामी, खाँ साहब के स्वरों से इतना सुपरिचित हो गया था कि उनकी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष आवाज़ सुन कर खिंचा चला आता था। इस तथ्य से प्रभावित होकर लन्दन की ग्रामोफोन कम्पनी ने अपना नामकरण और प्रतीक चिह्न, अपने स्वामी के स्वरों के प्रेमी उस कुत्ते को ही बनाया। हिज मास्टर्स वायस (HMV) के ग्रामोफोन रिकार्ड पर चित्रित कुत्ता उस्ताद अब्दुल करीम खाँ का ही है। आइए, अब चलते-चलते उस्ताद अब्दुल करीम खाँ के स्वरों में, अत्यन्त लोकप्रिय, भैरवी की ठुमरी सुनते हैं-

उस्ताद अब्दुल करीम खाँ : ठुमरी – राग भैरवी : ‘जमुना के तीर...’

कृष्णमोहन मिश्र

अब समय आ चला है आज के 'सुर-संगम' के अंक को यहीं पर विराम देने का। आशा है आपको यह प्रस्तुति पसन्द आई होगी। हमें बताइये कि किस प्रकार हम इस स्तम्भ को और रोचक बना सकते हैं! आप अपने विचार व सुझाव हमें लिख भेजिए admin@radioplaybackindia.com के ई-मेल पते पर।

झरोखा अगले अंक का
भारतीय संगीत वाद्यो में एक सर्वाधिक प्राचीन वाद्य है, सारंगी। यह अति प्राचीन वाद्य मानव कण्ठ-स्वर के सर्वाधिक निकट है। इस विशेषता के बावजूद एक लम्बे समय तक यह एक संगति वाद्य के रूप में ही प्रचलित रहा। पिछली शताब्दी में सारंगी के कुछ ऐसे कलासाधक भी हुए जिन्होंने स्वतंत्र वाद्य के रूप में न केवल बजाया, बल्कि ऐसा बजाया कि संगीत जगत देखता ही रह गया। अगले अंक में हम एक ऐसे ही वरिष्ठ सारंगी वादक पण्डित रामनारायण के सारंगी वादन से आपका परिचय कराएँगे। अगले रविवार को प्रातः ९-१५ बजे हम आपसे http://radioplaybackindia.com/ पर फिर मिलेंगे।


क्या आपको शास्त्रीय, उपशास्त्रीय, लोक और फिल्म संगीत से अनुराग है? यदि हाँ, तो प्रतिदिन अपडेट होने वाले पृष्ठों के साथ हमसे यहाँ http://radioplaybackindia.com/  मिलें। 

Wednesday 14 December 2011

बाँस की बाँसुरी और सुरों का रंग : पण्डित रघुनाथ सेठ के संग

१५ दिसम्बर २०११
सुर संगम में आज

बाँस की बाँसुरी और सुरों का रंग : पण्डित रघुनाथ सेठ के संग

आज बाँसुरी शास्त्रीय संगीत के मंच पर स्वतन्त्र वाद्य, संगति वाद्य, सुगम और लोक-संगीत का मधुर और लोकप्रिय वाद्य बन चुका है। सामान्य तौर पर देखने में बाँस की, खोखली, बेलनाकार आकृति होती है, किन्तु इस सुषिर वाद्य की वादन तकनीक सरल नहीं है। बाँसुरी का अस्तित्व महाभारतकाल से पूर्व कृष्ण से जुड़े प्रसंगों में उपलब्ध है। शास्त्रीय वाद्य के रूप में इसे उत्तर भारत के साथ दक्षिण भारत के संगीत में समान रूप से लोकप्रियता प्राप्त है। पण्डित रघुनाथ सेठ की छवि वर्तमान बाँसुरी वादकों में प्रयोगशील वादक के रूप में लोकप्रिय है। आज के अंक में हम पण्डित रघुनाथ सेठ की बाँसुरी पर चर्चा करेंगे।

सुर संगम- ४७ : पण्डित रघुनाथ सेठ की संगीत-साधना

‘सुर संगम’ के एक नए अंक में, मैं कृष्णमोहन मिश्र, अपने समस्त संगीत-रसिकों का 'स्वरभारती' के मंच पर हार्दिक स्वागत करता हूँ। आज के अंक में हम आपके साथ भारतीय संगीत वाद्य, बाँसुरी और इस वाद्य के एक अनन्य स्वर-साधक, पण्डित रघुनाथ सेठ की सृजनात्मक साधना पर चर्चा करेंगे। आपको हम यह भी अवगत कराना चाहते हैं कि १५दिसम्बर को श्री सेठ का ८१वाँ जन्म-दिवस है। इस उपलक्ष्य में हम ‘सुर संगम’ के पाठकों-श्रोताओं की ओर से उन्हें बधाई-स्वरूप यह अंक प्रस्तुत कर रहे हैं।
बाँसुरी वादन के क्षेत्र में अनेक अभिनव प्रयोग करते हुए भारतीय संगीत को समृद्ध करने वाले अप्रतिम कलासाधक पण्डित रघुनाथ सेठ का जन्म १५ दिसम्बर, १९३१ को ग्वालियर के एक ऐसे परिवार में हुआ था, जहाँ बहन-भाइयों को तो संगीत से अनुराग था, किन्तु उनके पिता इसके पक्ष में नहीं थे। प्रारम्भिक शिक्षा ग्वालियर में ग्रहण करने के बाद, रघुनाथ सेठ १३ वर्ष की आयु में अपने बड़े भाई काशीप्रसाद जी के पास लखनऊ आ गए। काशीप्रसाद जी उन दिनों लखनऊ के प्रतिष्ठित गायक और रंगमंच के अभिनेता थे। उन्होने अपने अनुज के लिए विद्यालय की शिक्षा के साथ-साथ स्थानीय भातखण्डे संगीत महाविद्यालय (अब विश्वविद्यालय) में संगीत-शिक्षा के लिए भी दाखिला दिला दिया। उन दिनों महाविद्यालय के प्राचार्य, डा. श्रीकृष्ण नारायण रातञ्जंकर थे। शीघ्र ही रघुनाथ सेठ उनके प्रिय शिष्यों में शामिल हो गए। डा. रातञ्जंकर जी से उन्होने पाँच वर्षों तक निरन्तर संगीत-शिक्षा ग्रहण की। इसी दौर में उन्होने बाँसुरी को ही अपने संगीत का माध्यम चुना। लखनऊ विश्वविद्यालय से रघुनाथ सेठ ने पुरातत्व शास्त्र विषय से स्नातक परीक्षा उत्तीर्ण किया और इसी अवधि में अन्तर विश्वविद्यालय युवा महोत्सव में उन्हें बाँसुरी वादन के लिए सर्वश्रेष्ठ वादक का राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त हुआ। आइए यहाँ रुक कर पण्डित रघुनाथ सेठ की बाँसुरी पर सुनते हैं, राग शुद्ध सारंग। यह द्रुत तीनताल की रचना है।
बाँसुरी वादन - रघुनाथ सेठ – राग शुद्ध सारंग – द्रुत तीनताल
१९ वर्ष की आयु में रघुनाथ सेठ, लखनऊ से बम्बई (अब मुम्बई) गए। वहाँ पण्डित पन्नालाल घोष से मैहर घराने की बारीकियाँ सीखी। प्रारम्भ से ही संगीत में नये प्रयोग के हिमायती श्री सेठ ने लगभग दो दशक पूर्व मेरे द्वारा किए गए एक साक्षात्कार में अपने कुछ प्रयोगों की चर्चा की थी। आपके लिए आज हम उक्त साक्षात्कार के कुछ अंश प्रस्तुत कर रहे हैं। एक प्रश्न के उत्तर में उन्होने कहा था कि संगीत उनके लिए योग-साधना है। उनके अनुसार भारतीय संगीत की प्रस्तुति में गायक-वादक का व्यक्तित्व प्रकट होता है। सच्चे सुरॉ की सहायता से कलासाधक और श्रोता समाधि की स्थिति में पहुँचता है। यही सार्थक परमानन्द की अनुभूति है। उनके अनुसार एक ही राग की अलग-अलग प्रस्तुति अलग-अलग भावों की सृष्टि करने में सक्षम है। उन्होने यह भी बताया था कि संगीत में गूँज, अनुगूँज, समस्वरता और उप-स्वरों का विशेष महत्त्व होता है। यह सब गुण तानपूरा में होता है, इसीलिए गायन-वादन के प्रत्येक कार्यक्रम में तानपूरा मौजूद अवश्य होता है। आगे चल कर रघुनाथ सेठ ने अपनी बाँसुरी और अपने सगीत में अनेकानेक सफल प्रयोग किये। आइए, आपको बाँसुरी पर उनके बजाये राग ‘नट भैरव’ की एक रचना सुनते हैं। इस रचना के आरम्भिक 45 सेकेण्ड तक बिना तानपूरे के बाँसुरी वादन हुआ है। लगभग साढ़े तीन मिनट के बाद रचना में ताल का प्रयोग हुआ है, किन्तु पारम्परिक रूप से तबला या पखावज के स्थान पर नल-तरंग जैसे वाद्य और पाश्चात्य लय वाद्यों का प्रयोग किया गया है। इस रचना का शीर्षक उन्होने ‘सूर्योदय’ रखा है। आप यह रचना सुनिए और शीर्षक की सार्थकता को प्रत्यक्ष अनुभव कीजिए।
बाँसुरी वादन - रघुनाथ सेठ – राग नट भैरव – प्रयोग : सूर्योदय
श्री सेठ ने शास्त्रीय मंचों पर अपनी प्रस्तुतियों से श्रोताओं को सम्मोहित करने के साथ-साथ भारत सरकार के फिल्म डिवीजन के लगभग दो हज़ार वृत्तचित्रों में संगीत दिया है। वर्ष १९६९ में वे फिल्म डिवीज़न के संगीतकार हुए थे। उनके अनेक वृत्तचित्रों को राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय पुरस्कार मिले। श्री सेठ ने संगीत का मानव जीवन पर पड़ने वाले प्रभाव का गहन अध्ययन किया है और इस विषय पर अनेक संगीत रचनाएँ भी की है। बहुआयामी संगीतज्ञ पण्डित रघुनाथ सेठ ने कई फिल्मों में भी संगीत निर्देशन किया है। उनके संगीत से सजी फिल्में हैं- ‘फिर भी’ (१९७१), ‘किस्सा कुर्सी का’ (१९७७), ‘एक बार फिर’ (१९८०), ‘ये नज़दीकियाँ’ (१९८२), ‘दामुल’ (१९८५), ‘आगे मोड़ है’ (१९८७), ‘सीपियाँ’ (१९८८) और ‘मृत्युदण्ड’ (१९९७)। आज हम आपको १९८२ में प्रदर्शित फिल्म ‘ये नज़दीकियाँ’ का एक मधुर गीत सुनवाते हैं। गणेश बिहारी श्रीवास्तव के गीत को पार्श्वगायक भूपेंद्र सिंह ने स्वर दिया है। इस गीत के साथ हम आज के अंक को यहीं विराम देते है।
फिल्म : ये नज़दीकियाँ – ‘दो घड़ी बहला गई परछाइयाँ...’ संगीत : रघुनाथ सेठ
कृष्णमोहन मिश्र

झरोखा अगले अंक का
आपने हिज़ मास्टर्स वायस (HMV) के रिकार्ड पर एक चित्र देखा होगा, जिसमें ग्रामोफोन के सामने एक कुत्ता बैठा हुआ अपने स्वामी का संगीत सुन रहा है। आपको यह जान कर आश्चर्य होगा कि यह कुत्ता अपने समय के सुविख्यात शास्त्रीय गायक उस्ताद अब्दुल करीम खाँ साहब का था। अगले अंक में हम इसी सुरीले कुत्ते के स्वामी उस्ताद अब्दुल करीम खाँ की अनूठी गायकी पर आपसे चर्चा करेंगे। अगले रविवार को  आपसे फिर मिलेंगे।

क्या आपको शास्त्रीय, उपशास्त्रीय, लोक और फिल्म संगीत से अनुराग है? यदि हाँ, तो प्रतिदिन अपडेट होने वाले पृष्ठों के साथ हमसे यहाँ http://radioplaybackindia.com/  मिलें।